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सिद्धान्तसार
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६ प्रमत्तसंयत - संज्वलन कषाय और नोकषाय इनका उदय इस गुणस्थानमें होता है । अनंतानुबन्ध्यादि बारह कषायोंका क्षयोपशम होनेसे इस गुणस्थानमें महाव्रत प्राप्त होते हैं, परन्तु संयममें कुछ मल उत्पन्न करनेवाला प्रमाद उत्पन्न होनेसे इसे प्रमत्तसंयत कहते हैं ।
७ अप्रमत्त संयत जब प्रमाद नष्ट होता है और संज्वलन कषायोदय और नोकषायोदय मंद होता है, तब इसके संयम - महाव्रत अतिशय निर्मल होते हैं ।
८ अपूर्वकरण इस गुणस्थान में अनंतानुबंध्यादि बारह कषाय और नौ नोकषाय इनका क्षय अथवा उपशम करनेवाले अपूर्व ऐसे निर्मल परिणाम होते हैं, जो कि पूर्वगुणस्थानोंमें नहीं होते । जितने मुनिराज इस गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं उनमेंसे जो समानसमयवर्ती मुनि हैं उनके परिणाम सदृशभी होते हैं और विसदृशभी होते हैं परंतु भिन्न समयमें स्थित जीवोंके परिणाम सर्वदा विसदृशही होते हैं । इस गुणस्थान में प्रतिसमय में परिणामोंकी निर्मलता बढतीही है ।
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९ अनिवृत्तिकरण
इस गुणस्थानमें अधिक निर्मल शुक्लध्यान से आयुको छोडकर शेष सात कर्मोंकी गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखंडन, अनुभागकाण्डखंडन होता है और मोहनीय कर्मकी बादरकृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि आदि होती है । इस गुणस्थानमें जो मुनिराज हैं उनके प्रतिसमय एकही परिणाम होता है अर्थात् एक समयमें जितने मुनि होंगे उनमें समानही परिणाम होंगे और भिन्न समयमें जो मुनिराज होंगे वे सब विसदृश परिणामकेही धारक होंगे ।
१० सूक्ष्मसां पराय इस गुणस्थानमें धुले हुए कौसुम्बवस्त्र में जैसी सूक्ष्मलालिमा रह जाती है वैसी रागभावना अत्यंत सूक्ष्म होती है । यहाँ मोहकी वीस प्रकृतियोंका उपशम अथवा क्षय होता है । सिर्फ एक संज्वलन लोभ सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त होता हुआ पाया जाता है । वह अत्यंत सूक्ष्म होकर रहता है ।
११ उपशांतकषाय कतकफलसे पानी निर्मल होता है और मल नीचे बैठता है, वैसा यहां संपूर्ण मोहकर्म उपशान्त होनेसे आत्मा उपशांतकषाय होता है ।
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१२ क्षीणकषाय इसलिये निर्मल स्फटिक पात्र में रखे हुए जलके समान निर्मल होती है ।
संपूर्ण मोहकर्म नष्ट होनेसे आत्मा पूर्ण कषायरहित होती है ।
१३ सयोगकेवली
इस गुणस्थान में जीवको केवलज्ञान प्रगट होता है और क्षायिक नौ केवललब्धियोंकी प्राप्ति होती है। फक्त योगसहित होनेसे उनको सयोग केवली कहते हैं ।
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१४ अयोगकेवली
यहां अठारह हजार शीलोंकी प्राप्ति होती है और कर्मोका आगमन-आस्रव सर्वथा बंद होता है । सत्त्व और उदय अवस्थाको प्राप्त कर्मरजकी सर्वोत्कृष्ट निर्जरा होनेसे काययोगरहित केवलीको चौदहवे गुणस्थान में अयोगकेवली कहते हैं । यहांही पूर्णशील, पूर्णसंवर, पूर्णनिर्जरा होनेसे मुनिराज मुक्ति अवस्थाके सम्मुख होते हैं ।
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