SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४०) सिद्धान्तसारः (४. १६९ संयतासंयतस्तस्मात्प्रमत्ताविसुसंयतः । अप्रमत्तो यतिः पश्चादष्टमोऽपूर्वकृन्मतः॥१६९ अनिवृत्त्यल्पलोभौ च शान्तक्षीणकषायकौ । सयोगी च तथायोगी गुणाश्चैते चतुर्दश ॥ १७० उनका आयुष्य कम नहीं होता है । विष शस्त्रादि कारणोंसे, तीव्र अग्न्यादि उपसर्गोंसे उनको अकालमें मरण नहीं आता ॥ १६७-१६९ ॥ (गुणस्थानोंके नाम।)- मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली ऐसे चौदह गुणस्थान हैं ॥ १७० ॥ विशेष स्पष्टीकरण- आचार्य नरेन्द्रसेनजीने यहां गुणस्थानोंके नामही बताये हैं। उनका स्वरूप विस्तारभयसे नहीं दिया । उन गुणस्थानोंका लक्षण यहां दिखाते हैं १ पहिला गुणस्थान मिथ्यात्वकर्मके उदयसे होता है। २ दुसरा सासादन गुणस्थान है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमेंसे जघन्य एक समय अथवा उत्कृष्ट छह आवलिकाल शेष रहता है उस समय अनन्तानुबंधि क्रोध, मान, माया लोभमेंसे किसीका उदय होनेसे सम्यग्दर्शन नष्ट होता है और वह जीव मिथ्यात्वके सम्मुख होता है । इस अवस्थाको सासादन गुणस्थान कहते हैं। ३ तीसरा गुणस्थान मिश्रदृष्टि नामक है। इसमें सम्यङमिथ्यात्व कर्मका उदय होता है तब सम्यङमिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं। वे परिणाम न सम्यग्दर्शनरूप है न मिथ्यारूप हैं । परंतु मिश्ररूपपरिणाम होते हैं। अर्थात् सर्वज्ञकथित-पदार्थस्वरूपके श्रद्धानकी अपेक्षा समीचीनता और सर्वज्ञाभास-कथित अतत्त्वश्रद्धानकी अपेक्षा मिथ्यापना ये दोनोंही धर्म एककाल और एकआत्मामें घटित हो सकते हैं। इसमें कोईभी विरोधादि दोष नहीं है। जैसे दही और गुडको परस्पर मिलानेसे दोनोंका स्वाद खट्टा और मीठा मिला हुआ होता है उसही प्रकार एककालमें मिश्ररूप परिणाम- सम्यक्त्वरूप और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं। ४ असंयत सम्यग्दृष्टि-सर्वज्ञकथित जीवादि-पदार्थों के ऊपर श्रद्धा करता है, तथा असंयमी होता है; क्योंकि इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्ति तथा प्राणिसंयम उसको नहीं होता है । इसलिये उसको असंयमी कहते हैं । परंतु वह विनाप्रयोजन किसी हिंसामें प्रवृत्त भी नहीं होता है। ५ संयतासंयत-अनन्तानुबंधी कषायके उपशम, क्षय, क्षयोपशमादिकसे यह श्रावक सम्यग्दृष्टि होता है और अप्रत्याख्यान कषायके क्षयोपशमसे उसको अणुव्रतोंकी प्राप्ति हुई है, इसलिये इसको देशव्रती कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy