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-५. १०२ )
सिद्धान्तसारः
(१२९
भव्याभव्यविभेदेन' जीवराििद्वधा भवेत् । पारिणामिकभावौ हि तावेतावस्य सम्मतौ ॥९९ पारिणामिकता तावदनयोर्जस्वभावतः । कर्मणा जनितो भावः पुनरौदयिको मतः ॥ १०० सदलत्रयभावेन जीवो योऽत्र भविष्यति । स भव्य इति सूत्र पितो ज्ञानशालिभिः॥१०१ सम्यग्दर्शनसंज्ञानसच्चरित्रस्वभावभाक् । न भविष्यति चाभव्योऽनन्तसंसारवानयम् ॥ १०२
द्रव्यमनरूप होनेके योग्य मनोवर्गणाको द्रव्यमनके आकाररूप परिणत करनेकी जीवशक्तिकी पूर्णता होना मनःपर्याप्ति है।
एकेन्द्रिय जीवको आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इंद्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ऐसी चार पर्याप्तियाँ होती हैं । द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रियतक पूर्वकी चार और भाषा ऐसी पांच पर्याप्तियाँ होती हैं । तथा संज्ञी पर्याप्तकको पूर्व पांच पर्याप्तियोंके साथ मनःपर्याप्ति प्राप्त होती हैं अर्थात् छहों पर्याप्तियाँ संज्ञीको होती हैं ।
विविध आगमोंके पारगामी और अनेक जीवप्रकारोंको जाननेवाले आचार्योंने त्रस और स्थावर भेदसे दो प्रकारके जीव कहे हैं । ९८॥
( भव्य और अभव्यका वर्णन । )- भव्य और अभव्यके भेदसे जीवराशि दो प्रकारको है। इस जीवराशिके ये दो भेद परिणामिक भाववाले हैं। जिस भावको द्रव्यका निजस्वरूपही कारण है अर्थात् द्रव्यका अपने स्वरूपमें रहना पारिणामिक भाव है । इस भावकी द्रव्यमें अनादि निधनता है अर्थात् यह भाव कर्मोंका उपशम, उदय, क्षय और क्षयोपशम होकर उत्पन्न नहीं होता है, यह भाव वस्तुका निजस्वरूप है । जगत्में कोई जीव भव्यही है और कोई जीव अभव्यही हैं । ऐसा स्वभाव तर्कके अगोचर है । इसमें तर्क करना व्यर्थ है ।। ९९ ॥
चैतन्यस्वभाव जैसा पारिणामिक है, उसमें कर्मोदयादि कारण नहीं है, वैसा भव्यत्वभाव और अभव्यत्वभाव पारिणामिक है। जो भाव कर्मसे उत्पन्न होता है उसे औदयिक भाव कहते हैं ।। १०० ।।
जीवराशिमेंसे जो जीव उत्तम निर्दोष रत्नत्रयभाव इस संसारमें धारण करेगा वह भव्य है, ऐसा ज्ञानवान सूत्र जाननेवाले उमास्वामी आदि आचार्योंने कहा है ॥ १०१ ॥
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सच्चारित्र ऐसा रत्नत्रय स्वभाव जो जीव नहीं धारण करता-रत्नत्रयरूप स्वभावको जो नहीं धारण करेगा वह अभव्य है, और वह अनन्तसंसारवानही होता है । १०२॥
२ कर्मणो
१ आ. त्व S. S. 17
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