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सिद्धान्तसारः
नामतो द्रव्यतो वापि स्थापनायाश्च भावतः । चतुर्धा जायते न्यासो जीवतत्त्वस्य तत्त्वतः ॥ १०३ अजीवनगुणोपेतं यत्किञ्चिद्वस्तु विद्यते । तत्रापि जीवनाम्ना स्यान्नामजीवो विभावितः ॥ १०४ काष्ठपुस्तसुचित्रादिरूपेणासौ' प्रकल्पितः । स एवायमिति व्यक्तं स्थापनाजीव इष्यते ॥ १०५ जीवनादिगुणोपेतं यद्द्रव्यं पारमार्थिकम् । यस्तदात्मा भवेन्नित्यं द्रव्यजीवः स सम्मतः ॥ १०६ वर्तमानस्व पर्यायस्थितिमानेष कथ्यते । भावजीव इति प्राज्ञैः प्रदिष्टाशेषदर्शनः ॥ १०७
विशेष स्पष्टीकरण - कितनेही भव्य ऐसे हैं, कि जो मुक्तिप्राप्ति के योग्य हैं परन्तु कभी मुक्त न होंगे । जैसे वन्ध्यापने के दोषसे रहित विधवा सती स्त्रीमें पुत्र प्राप्त होनेकी योग्यता है परन्तु उसके कभी पुत्र उत्पन्न न होगा । कोई भव्य ऐसे हैं, कि जिनको नियमसे मुक्ति प्राप्त होगी जैसे वंध्यत्वदोषसे रहित स्त्रीको निमित्त मिलानेपर पुत्रोत्पत्ति होगी। इन दोनों स्वभावोंसे जो रहित है उनको अभव्य कहते हैं जैसे वन्ध्या स्त्रीको निमित्त मिलनेपरभी पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता है ।
( नामादि निक्षेपों से जीवके चार भेद हैं । ) - नामसे, स्थापनासे, द्रव्यसे और भावसे जीवतत्त्वका यथार्थतया चार प्रकारका न्यास होता है । जीवका चार प्रकारका लोकव्यवहार होता है ।। १०३ ॥
( ५. १०३
( नामजीव । ) - जिसमें कुछभी जीवन क्रिया नहीं है ऐसी जो कोईभी वस्तु है, उसमें भी जीव ऐसी संज्ञासे व्यवहार करना वह नामजीव है ।
( स्थापना जीव ) - काष्ठ, पुस्त, धातु आदिकमें चित्रादिरूपमे जीवको कल्पित करके वही यह है ऐसी जो स्थापना की जाती है उसे स्थापनाजीव कहते हैं ।। १०५ ॥
( द्रव्यजीव और भावजीव ) - जीवन आदिक गुणोंसे जो द्रव्य युक्त है, वह परमार्थ से द्रव्यजीव है और इस संसार में सदा उसी स्वरूप में वह दिखता है । यहां संक्षेपसे उसका स्वरूप कहा है । जीवनपर्याय, मनुष्यजीवनपर्यायसे परिणत जीवको भावजीव कहते हैं । सामान्यकी अपेक्षासे जीवनसामान्य हमेशाही विद्यमान है वह जीवन कभी है और कभी नहीं है ऐसा नहीं । इसलिये विशेषकी अपेक्षासे गत्यन्तरमें जीव स्थित है, वह मनुष्यभावप्राप्तिके सम्मुख वा पशु आदि भवकी प्राप्ति के सम्मुख जब होता है तब भविष्यत्की अपेक्षा करके वर्तमानकालमें उसे द्रव्यजीव कहते हैं और भावजीव हमेशाही जीवनक्रिया होनेसे माना जाता है ।। १०६ ।।
संपूर्ण दर्शनोंका स्वरूप कहनेवाले विद्वानोंने वर्तमानकाल में जो अपनी जिस पर्यायको धारण करता है उसे उस मनुष्यादि पर्यायवाला कहना भावजीव है ॥ १०७॥
१ आ. पत्र
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