________________
१२८)
सिद्धान्तसारः
(५. ९६
आहारो विग्रहश्चेति मनोभाषेन्द्रियाणि च । निश्वासोच्छ्वास इत्येवं पर्याप्तय उदीरिताः ॥९६ अनिर्वतितपर्याप्ति प्रपन्ना ये शरीरिणः । अपूर्णास्तेऽत्र विज्ञेयाः पूर्णास्तदितरे पुनः ॥ ९७ त्रसस्थावरभेदेन जीवग्रामो निवेदितः । द्विप्रकारः प्रकार विविधागमपारगैः ॥ ९८
( छह पर्याप्तियां । )- आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, मनःपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति, इंद्रियपर्याप्ति और श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति ऐसी छह पर्याप्तियां कही हैं । जो शरीरपर्याप्तिको प्राप्त नहीं हुए हैं वे अपूर्ण अर्थात् अपर्याप्त जीव हैं । और जो शरीरपर्याप्तिको पूर्ण कर चुके हैं वे पूर्ण अर्थात् पर्याप्त हैं ।। ९६-९७ ।।
विशेष स्पष्टीकरण- पर्याप्त, निर्वृत्त्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त ऐसे जीवके तीन भेद हैं। जिनको पर्याप्ति नामक कर्मका उदय है ऐसे जीव जिनको जितनी पर्याप्तियां प्राप्त होनेकी योग्यता है. उतनी पर्याप्तियां उनको यदि प्राप्त हो गई हो, तो उनको पर्याप्त कहना चाहिये। पर्याप्त जीवके दो भेद हैं, एक पर्याप्त और दूसरे निर्वत्त्यपर्याप्त । पर्याप्ति नामकर्मके उदयसे जवतक उसकी शरीरपर्याप्ति पूर्ण नहीं हई है तबतक उसको पर्याप्त नहीं कहते हैं किन्तु निर्वत्त्यपर्याप्त कहते हैं । अर्थात् इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन पर्याप्तियोंके पूर्ण न होनेपरभी यदि शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो गई तो उस जीवको पर्याप्त कहना चाहिये किन्तु उससे पूर्व उसको निर्वृत्त्यपर्याप्त कहना चाहिये । अपर्याप्त नामक कर्मके उदयसे जीव लब्ध्यपर्याप्त होता है, उसको जितनी पर्याप्तियां प्राप्त होनी चाहिये उतनी कभीभी प्राप्त नहीं होती और वह शरीरपर्याप्तिकी पूर्णता होनेके पूर्वही भवान्तरमें चला जाता है । ऐसा पर्याप्तक, निर्वृत्त्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकका स्वरूप कहा है ।।
यहां पर्याप्तियोंका स्वरूप कहते है-पूर्वशरीरको छोडकर नवीन शरीरको कारणभूत जिस नोकर्म वर्गणाको जीव ग्रहण करता है, उसको खलरस भाग रूप परिणमानेकेलिये जीवकी शक्तिके पूर्ण हो जानेको आहारपर्याप्ति कहते हैं ।
खलभागको हड्डी आदि कठिन अवयवरूप और रसभागको रक्त आदि द्रवभागरूप परिणत करनेकी जीवकी शक्ति पूर्ण होना वह शरीरपर्याप्ति है।
उन नोकर्मवर्गणाके स्कंधोंमेंसे कुछ वर्गणाओंको अपनी अपनी इंद्रियस्थानपर द्रव्येन्द्रिय आकाररूप परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णता होना इंद्रियपर्याप्ति है।
इसही प्रकार कुछ स्कंधोंको श्वासोच्छ्वासरूप परिणत करनेकी जीवकी शक्तिकी पूर्णता होना आनपान-श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति कहते हैं ।
वचनरूप होने के योग्य पुद्गल स्कन्धोंको ( भाषावर्गणाको ) वचनरूप परिणत करनेकी आत्मशक्तिकी पूर्णता होना भाषा पर्याप्ति है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org