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________________ सिद्धान्तसार: ( १२७ शेषास्तिर्यङमनुष्याद्याः सुखदुःखैकभागिनः । शुभाशुभाशयाः ' सर्वे सत्यं पञ्चेन्द्रिया मताः ॥९१ एकेन्द्रियेषु चत्वारः षट्पुनद्वन्द्रियादिषु । पञ्चेन्द्रियेषु चत्वारः समासाः स्युश्चतुर्दश ।। ९२ येsपि पञ्चेन्द्रिया जीवास्तेऽपि द्वेधा भवन्त्यमी । संज्ञ्यसंज्ञिविभेदेन पूर्णा पूर्णतयाथवा ।। ९३ कृत्याकृत्यविधौ ये च प्रवर्तन्ते तथा पुनः । शिक्षोपदेशनाला पैस्तत्र संज्ञितया मताः ॥ ९४ विपरीताश्च ते तेभ्यो भूरिपापभराकुलाः । असज्ञिनश्च ते सर्वे मनसा वर्जिता यतः ॥ ९५ - ५. ९५ ) इन जीवोंके व्यतिरिक्त तिर्यंच मनुष्यादिक शेष जीव सुखदुःखके अनुभव करनेवाले होते । इनके परिणाम शुभ और अशुभ होते हैं और इनके पांच इन्द्रिया होती हैं । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय ऐसी पांच इन्द्रिया इन जीवोंको होती हैं ॥ ९१ ॥ जीवसमास के चौदह भेद हैं। जिनकेद्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक प्रकारकी जाति जानी जाय उन धर्मोंको अनेक पदर्थोंका संग्रह करनेवाले होनेसे जीवसमास कहते हैं ऐसा समझना चाहिये । भावार्थ- - उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं, कि जिनकेद्वारा अनेक जीव अथवा जीवोंकी अनेक जातियोंका संग्रह किया जा सके। वे चौदह भेद इस प्रकार हैं- एकेन्द्रियों में चार जीवसमास, द्वीन्द्रियादिकोंमें छह जीवसमास और पंचेन्द्रियोंमें चार जीवसमास हैं । ये सब मिलकर जीवसमासके चौदह भेद हैं । एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त, एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त, एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त और एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त । द्वीन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त । चतुरिन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याय । संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त, असंज्ञी अपर्याप्त ऐसे चौदह जीवसमास हैं ।। ९२ ।। ( पंचेन्द्रियके संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो भेद । ) - जो भी पंचेन्द्रिय जीव हैं, वे सभी संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो प्रकार के हैं तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो दो भेद हैं ।। ९३ ।। जो जीव शिक्षा, उपदेश और आलापकेद्वारा यह कार्य करने योग्य है और यह कार्य करने योग्य नहीं है अर्थात् इसके करनेसे हित होगा और इसके करनेसे अहित होगा ऐसा विचार कर प्रवृत्ति करते हैं वे संज्ञी माने जाते हैं । तात्पर्य- हितका ग्रहण और अहितका त्याग जिसके द्वारा किया जाता है उसको शिक्षा कहते हैं । इच्छापूर्वक हाथपैरके चलानेको क्रिया कहते हैं । वचन अथवा चाबुक आदिकेद्वारा बताये हुए कर्तव्यको उपदेश कहते हैं और श्लोक आदिके पाठको आलाप कहते हैं ।। इस संज्ञीके जो विपरीत हैं उन्हें असंज्ञी कहना चाहिये । वे अतिशय पापके बोझ से पीडित हुए हैं; क्योंकि वे मनसे वर्जित हुए हैं ।। ९४-९५ ।। १ आ. वशाः २ आ. तु. आ. Jain Education International ३ सदा ४ आ. स्तेऽत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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