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सिद्धान्तसार:
(५.८५
नायं दोषो भवेद्यस्मात्कार्यकारणदर्शनात् । घटाकारपरिज्ञानं यथा घट इति स्फुटम् ॥ ८५ स्पर्शो रसस्तथा गन्धो वर्णः शब्दश्च पञ्चधा । तेषां विषय एवायं पदार्थेऽनन्तर्धामणि ॥ ८६ ये पृथिव्यादयः कायाः ' स्थावराः कथिताः पुरा । सर्वेऽप्येकेन्द्रिया जीवाश्चतुः प्राणा निरन्तराः ॥८७ अक्ष: ? कृमिजलौकाद्या विविधाकारधारिणः । द्वीन्द्रिया गदिता दक्षैर्भूरिशो भूरिपापिनः ॥ ८८ यूका मत्कुणपूर्वा ये वृश्चिकादय इत्यपि । अनेकाकारसंयुक्तात्रिहृषीकाः शरीरिणः ।। ८९ मक्षिका भ्रमरा दंशा बहुधा दुःखभागिनः । पापवर्गभुजो दोना बोद्धव्याश्चतुरिन्द्रियाः ॥ ९०
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दिया है - यह दोष नहीं है । कारणका जो धर्म है वह कार्य में देखा जाता है जैसे घटाकार परिणतज्ञानको घट कहते । अर्थात् ज्ञानके प्रति घट निमित्त कारण है और ज्ञान - कार्य इसलिये कारण धर्म घटत्वको कार्यरूप ज्ञानमें आरोपित कर ज्ञानकोभी घट कहते हैं। क्योंकि घटको ज्ञानने जाना है । ग्राह्यको जाननेसे ग्राहककोभी उपचारसे ग्राह्य कहते हैं । इसमें स्वार्थकी भी मुख्यता है अर्थात् इंद्रिय शब्दका जो अर्थ है वह उपयोगमें मुख्यतासे है । इंद्रको आत्माको पहचाननेका जो लिंग चिन्ह उसको इंद्रिय कहते हैं । ज्ञानसे आत्मा पहचाना जाता है; इसलिये ज्ञान- उपयोग यहां मुख्य स्वार्थ है । इसलिये उपयोगको इंद्रिय कहना योग्यही है । उपयोग जीवका लक्षण है । ' उपयोगो लक्षणम्' ऐसा सूत्रकारका वचनभी है ।। ८४-८५ ।।
पदार्थ अनंत धर्मात्मक है । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ऐसे पांच इन्द्रियोंके विषय हैं ॥ ८६ ॥
पूर्व में पृथिवीकायादिक पांच प्रकारके स्थावर जीव कहे हैं । वे सब एकेन्द्रिय जीव हैं अर्थात् उनको एक स्पर्शनेंन्द्रिय है । तथा स्पर्शनेंद्रिय, आयु, श्वासोच्छ्वास और कायबल ऐसे चार प्राण निरंतर रहते हैं ।। ८७ ।।
कौडी, कृमी, जौंक आदिक प्राणी अनेक आकार धारण करनेवाले असंख्यात द्वीन्द्रिय जीव हैं वे अतिशय पापयुक्त हैं। इनको स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय ऐसी दो इन्द्रिया होती हैं ॥ ८८ ॥
जूं, खटमल बिच्छु आदिक अनेक आकारके धारक त्रीन्द्रिय प्राणी हैं। उनके स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय ऐसे तीन इंद्रिया होती हैं ॥ ८९ ॥
मक्रवी, भौंरा, दंश, मशक ये अनेक प्रकारके दुःख भोगनेवाले जीव हैं । पापसमूहको अनुभवनेवाले हैं । इनको चतुरिन्द्रिय समझना चाहिये । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय ऐसी चार इन्द्रियां इनको होती हैं ॥ ९० ॥
१ आ. सर्वे २ आ. अक्ष ३ आ इत्यमी ४ आ. कर्म
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