________________
-५. ८४)
सिद्धान्तसारः
तेष्वेवात्मप्रदेशेषु करणव्यपदेशभाक् । पुद्गलानां समूहो यो जायते नामकर्मणा ॥ ७७ निर्वृत्त बाह्यरूपां तां समस्ताश्चर्यकारिणीम् । जानन्ति जनविख्याता ज्ञानध्यानधना जिनाः ॥७८ निर्वृत्तेः क्रियते येनोपकारस्त निगद्यते । द्वेधोपकरणं' प्राज्ञैर्बाह्यमाभ्यन्तरं तथा ॥ ७९ कृष्णशुक्लद्वयोपेतं गोलकं चान्तरं मतम् । बाह्यं बाह्यप्रकाराक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादिकम् ॥ ८० लब्ध्युपयोगरूपं च भावेन्द्रियमिदं पुनः । सर्वभावविभावज्ञा भावयन्ति भवातिगाः ॥ ८१ क्षयोपशमभावो यो ज्ञानावरणकर्मणः लब्धिर्लब्ध महातत्त्वैर्भणिता भयवजितैः ॥ ८२ इन्द्रियाणां फलं यच्च परिच्छित्त्यात्मकं महत् । उपयोगः स विज्ञेयः सर्वसत्त्वसुखावहः ॥ ८३ इन्द्रियत्वं कथं तस्य घटनामुपढौकते । इन्द्रियाणां फलत्वेनोपयोगस्य समन्ततः ॥ ८४
गोल आत्मप्रदेशोंकी जो रचना होती है उसे अभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं । ज्ञान और ध्यानही धन जिनका है ऐसे जनविख्यात जिनेश्वरोंने इस प्रकार अभ्यन्तर निर्वृत्तिका स्वरूप कहा है । मसूराकार आदि आत्मप्रदेशोंपर नामकर्मसे पुद्गलोंकी जो प्रतिनियत आकारकी अवस्था उत्पन्न होती है, जो कि सूक्ष्म है, और जिसको इन्द्रिय कहते हैं उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहना चाहिये । ७६-७७-७८ ॥
(१२५
जिससे निर्वृत्तिके ऊपर उपकार किया जाता है - निर्वृत्तिका संरक्षण तथा सहाय किया जाता है उसे उपकरण कहते हैं । सुज्ञोंने उसके बाह्योपकरण और अभ्यन्तरोपकरण ऐसे दो भेद कहे हैं । जैसे आँखमें कृष्ण और शुक्लतासे युक्त जो अन्दरका गोलभाग है उसे अभ्यन्तरोपकरण कहना चाहिये । तथा बाह्य उपकरण नेत्रके बाह्यमें जो नीचे और ऊपरके विभाग तथा पक्ष्मद्वय आदिक हैं वे बाह्य उपकरण हैं । नेत्रके समान अन्य इंन्द्रियों में भी निर्वृत्ति और उपकरण समझ लेना चाहिये ।। ७९-८०॥
( भावेन्द्रियका वर्णन । ) - जो संसाररहित हैं तथा सर्व पदार्थोंके स्वभाव और विभावको जानते हैं ऐसे जिनेश्वर भावेन्द्रियको लब्धिरूप और उपयोगरूप कहते हैं । स्पर्शेन्द्रिय ज्ञानावरण, रसनेन्द्रियज्ञानावरण आदि ज्ञानावरण कर्मोंके क्षयोपशमको जीवादि महातत्त्वों के ज्ञाता और भयरहित ऐसे जिनेश्वरोंने 'लब्धि' कहा है । ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे आत्मा द्रव्येन्द्रियरूप रचना करनेकेलिये उद्युक्त होता है । यदि वह क्षयोपशम नहीं होगा तो द्रव्येन्द्रिय रचना, जो कि नेत्र, कान आदिकी दर्शक है, वह नहीं होगी । वस्तुको जाननेरूप जो इन्द्रियों का महत्वयुक्त फल है उसे उपयोग कहते हैं । यह उपयोग सर्व प्राणियोंको सुखावह है; क्योंकि इससे सर्व प्राणी हित प्राप्त करते हैं और अहितसे निवृत्त होते हैं ।। ८१-८२-८३ ।।
उपयोग सर्व प्रकारसे इन्द्रियों का फल हैं । इसलिये जो फलरूप होता है उसे इन्द्रिय कहना योग्य नहीं, उपयोग में इन्द्रियपना घटित नहीं होता, इस शंकाका आचार्यने ऐसा उत्तर
आ. द्विधा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org