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________________ १२४) सिद्धान्तसारः वाग्रसनेन्द्रियाभ्यां च चत्वारोऽप्यधिकाः पुनः । द्वीन्द्रियेषु प्रजायन्ते शंखाद्याश्च प्रमाणतः ॥ ६९ सप्तव त्रीन्द्रियेष्वेते घ्राणाधिकतया मताः । चक्षुषा सहिताश्चाष्टौ त एव चतुरिन्द्रिये ॥ ७० पञ्चेन्द्रियस्य जीवस्य तिरश्चोऽसज्ञिनश्च ते । नव प्राणाः प्रजायन्ते श्रोत्राधिकतया सदा ॥७१ मनोऽधिकतया तेऽपि संज्ञिनो दश सम्मताः । प्राणाः प्राणभृतां प्रोक्ता दशैते संविभागतः॥७२ इन्द्रियाणि तु' पंचैव प्रोक्तानि जिननायकः । स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रमिति क्रमात् ॥७३ तानि द्वधा भवन्त्येव द्रव्यभावप्रभेदतः। उपकारणनिर्वृत्ती द्रव्येन्द्रियमपि द्विधा ॥७४ यावन्निवय॑ते तावत्कर्मणा सा द्विधा पुनः । बाह्याभ्यन्तरभेदेन निर्वृत्तिः कथ्यते बुधैः ॥७५ उत्सेधस्याङगुलासङख्यविभागाः परमात्मनः । इन्द्रियत्वेन निर्वत्ता निर्वृत्तिः सान्तरा मता ॥७६ द्वीन्द्रिय जीवको छह प्राण होते हैं-अर्थात् शरीरप्राण, श्वासोच्छ्वास, आयु, स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और वचन ऐसे छह प्राण होते हैं । शंख आदिको द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं ।। ६९।। त्रीन्द्रियोंमें उपर्युक्त छह प्राण होते हैं तथा नाक अर्थात् घाणेन्द्रिय यह सातवां प्राण अधिक होता है। तथा चतुरिन्द्रिय जीवमें उपर्युक्त सात प्राणोंसे अतिरिक्त आँखेंभी होती हैं अर्थात् आठ प्राण होते हैं ।। ७० ॥ पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यंच जीवको उपर्युक्त आठ प्राणोंके साथ श्रोत्रप्राण अर्थात् कान प्राण मिलकर नौ प्राण होते हैं। तथा नौ प्राणोंसे सहित मनःप्राण जिनको होता हैं वे संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव दस प्राणवाले होते हैं। ऐसे विभागके द्वारा दस प्राणोंका विवेचन किया है।।७१-७२॥ ___ स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय ऐसी पांच इन्द्रियाँ क्रमसे जिनेश्वरने कही हैं ।। ७३ ॥ (द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियोंका वर्णन । )- वे पांच इन्द्रिया द्रव्येन्द्रियरूप और भावेन्द्रियरूप हैं । द्रव्येन्द्रियके उपकरण और निर्वृत्ति ऐसे दो भेद हैं । कर्मके द्वारा जो इन्द्रियोंकी रचना होती है वह निर्वृत्ति कही जाती है । अर्थात् रचनाको निर्वृत्ति कहते हैं। उसकी अभ्यन्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति ऐसे दो भेद हैं । अर्थात् इन्द्रियोंकी अन्दरकी रचना अभ्यन्तर निर्वृत्ति है और इन्द्रियोंकी बाहरकी रचनाको बाह्य निर्वृत्ति कहना चाहिये ।। ७४-७५ ।। उत्सेधाङगुलके असंख्येय भागसे प्रमित जो क्षयोपशमयुक्त आत्मप्रदेश हैं जो कि प्रतिनियत आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियोंके आकारके हुए हैं उनको अभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। उन आत्मप्रदेशोंके ऊपर इन्द्रिय नामका धारक ऐसा जो पुद्गलसमूह नामकर्मके द्वारा रचा जाता है, जो कि संपूर्ण आश्चर्यका कारण है उसे विद्वान् बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं । जैसे नेत्र में मसूरके आकार की १ आ. ण्यत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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