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________________ -५. ५३) सिद्धान्तसारः (१२१ पञ्चप्रकारसंसारसागरे सरतोऽपि च । आपत्कल्लोलभग्नस्य जीवस्याश निमज्जनम ॥ ५२ श्रीजिनेन्द्रमहाधर्म सद्रत्नत्रयलक्षणम् । मुक्त्वा पोतमिमं तस्मात्तरन्ति प्राणिनः कुतः ? ॥५३ कारणभूत आत्माके प्रदेश परिस्पन्दरूप योगके तरतमरूप स्थानोंको योगस्थान कहते हैं। अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान-जिन कषायके तरतमरूप स्थानोंसे अनुभाग बंध होता हैं, उनको अनुभागबंधाध्यवसायस्थान कहते हैं । स्थितिबंधाध्यवसायस्थान-स्थितिबंधको कारणभूत कषायपरिणामोंको कषायाध्यवसायस्थान या स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान कहते हैं। स्थितिस्थान-बंधरूप कर्मकी जघन्यादिक स्थितिको स्थितिस्थान कहते हैं । इसके परिवर्तनकों दृष्टान्तद्वारा कहते हैं। श्रेणीके असंख्यातमें भागप्रमाण योगस्थानोंके हो जानेपर एक अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता हैं । और असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हो जानेपर एक कषायाध्यवसायस्थान होता है । तथा असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके हो जानेपर एक स्थितिस्थान होता है। इस क्रमसे ज्ञानावरण आदि समस्त मूल-प्रकृति वा उत्तर-प्रकृतियोंके समस्त स्थानोंके पूर्ण होनेपर एक भावपरिवर्तन होता है । जैसे किसी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि संज्ञी जीवके ज्ञानावरण कर्मकी अंतःकोडाकोडी सागरप्रमाण जघन्यस्थितिका बंध होता है। यही यहांपर जघन्यस्थितिस्थान है। अतः इसके योग्य विवक्षित जीवके जघन्यही अनुभागबंधाध्यवसायस्थान जघन्यही कषायाध्यवसायस्थान और जघन्यही योगस्थान होते हैं। यहांसेही भावपरिवर्तनका प्रारंभ होता है। इसके आगे श्रेणीके असंख्यातमें भागप्रमाण योगस्थानोंके क्रमसे हो जानेपर दूसरा अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है । इसके बाद फिर श्रेणीके असंख्यातवे भागप्रमाण योगस्थानोंके क्रमसे हो जानेपर तीसरा अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होता है। इसही क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हो जानेपर दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । जिस क्रमसे दूसरा कषायाध्यवसायस्थान हआ उसही क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंके हो जानेपर जघन्यस्थितिस्थान होता है । जो क्रम जघन्यस्थितिस्थानमें बताया है वही क्रम एक एक समय अधिक द्वितीयादिस्थितिस्थानोंमें समझना चाहिये । तथा इसी क्रमसे ज्ञानावरणके जघन्यसे लेकर उत्कृष्टतक समस्तस्थितिस्थानोंके हो जानेपर और ज्ञानावरणके स्थितिस्थानोंकी तरह क्रमसे सम्पूर्ण मूल वा उत्तर प्रकृतियोंके समस्त स्थितिस्थानोंके पूर्ण होनेपर एक भावपरिवर्तन होता है । तथा इस परिवर्तनमें जितना काल लगे उसको एक भावपरिवर्तनका काल कहते है। इस प्रकार संक्षेपसे यहां पांच परिवर्तनोंका स्वरूप कहा है । इनका काल उत्तरोत्तर अनंतगुणित हैं ।। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड भव्यमार्गणा) इस पांच प्रकारके संसारसमुद्र में भ्रमण करनेवाले तथा आपदारूप कल्लोलोंसे भग्न हुए इस जीवका शीध्र मज्जन होता है ।। ५२॥ इस संसारसमुद्र में निर्दोष रत्नत्रय जिसका लक्षण है ऐसा जो जिनेन्द्रका महाधर्म वही नौका है, इसको छोडकर प्राणी किसकी सहायतासे संसारसमुद्रको तीर जायेंगे ? ॥ ५३ ॥ S.S.16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary. www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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