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________________ १२०) सिद्धान्तसारः (-५.५० तिर्यग्नारकदेवानां मानवानां गति' स्वयं । जीवो याति यदावृत्य तद्भवादिविवर्तनम् ॥ ५० सर्वेषां कर्मणां तावत्प्रकृत्यादिविभेदतः । आत्माशयविवर्ती यस्तद्धावपरिवर्तनम् ॥ ५१ कालपरिवर्तनका स्पष्टीकरण- कोई जीव उत्सर्पिणीके पहिले समयमें प्रथम उत्पन्न हुआ है। इसी तरह दुसरी वार, दूसरी उत्सर्पिणीके दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ, तिसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें तिसरी वार उत्पन्न हुआ । इसही क्रमसे उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणीके वीस कोडाकोडी सागरके जितने समय हैं उनमें उत्पन्न हुआ। तथा इसही प्रकार मरणको प्राप्त हुआ इसमें जितना काल लगे उतने कालसमुदायको एक कालपरिवर्तन कहते हैं । (गोम्मटसार जीवकाण्ड) (भवपरिवर्तनका वर्णन।)- जिन कर्मोंसे आवृत होकर-आच्छादित होकर जीव, तिर्यंच, नारकी, देव और मानवपर्यायोंको धारण करके संसारमें घूमता है उसे भवपरिवर्तन कहते हैं ॥ ५० ॥ भवपरिवर्तनका स्पष्टीकरण- कोई जीव दस हजार वर्षों के जितने समय होते हैं उतनी वार जघन्य दस हजार वर्षकी आयुसे उत्पन्न हुआ। पीछे एक एक समयके अधिक क्रमसे नरक संबंधी तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु क्रमसे पूर्ण कर अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतनी वार जघन्य अन्तर्मुहूर्तकी आयुसे तिर्यंचगतिमें उत्पन्न होकर यहांपरभी नरकगतिकी तरह एक एक समयके अधिक क्रमसे तिर्यंच गतिसम्बंधी तीन पल्यकी उत्कृष्ट आयुको पूर्ण किया। पीछे तिर्यग्गतिकी तरह मनुष्यगतिको पूर्ण किया । क्योंकि मनुष्यगतिकीभी जघन्य अन्तर्मुहर्तकी तथा उत्कृष्ट तीन पल्यकी आयु है । मनुष्यगतिके बाद दस हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी वार जघन्य दश हजार वर्षकी आयुसे देवगतिमें उत्पन्न होकर पीछे एक एक समयके अधिक क्रमसे इकत्तीस सागरकी उत्कृष्ट आयुको पूर्ण किया । यद्यपि देवगतिसंबंधी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागरकी है तथापि यहांपर इकत्तीस सागरही ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि मिथ्यादृष्टि देवकी उत्कृष्ट आयु इकत्तीस सागरतकही होती है । और इन परिवर्तनोंका निरूपण मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासेही है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि संसारमें अर्धपुद्गलपरिवर्तनका जितना काल है उससे अधिक कालतक नहीं रहता है । इस क्रमसे चारों गतियोंमें म्रमण करने में जितना काल लगे उतने कालको एक भवपरिवर्तनका काल कहते हैं। तथा इन कालमें जितना परिभ्रमण किया जाय उसको एक भवपरिवर्तन कहते हैं। ( भावपरिवर्तन )- संपूर्ण कर्मोके जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगप्रत्ययोंके भेदसे जो आत्माके परिणामोंमें असंख्य प्रकार उत्पन्न होते हैं उनको भावपरिवर्तन कहते हैं ॥ ५१॥ विशेष स्पष्टीकरण- योगस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, कषायाध्यवसायस्थान और स्थितिस्थान इन चारोंके निमित्तसे भावपरिवर्तन होता है। योगस्थान-प्रकृति और प्रदेशबन्धको १ आ. गतिष्वयम् २ आ. आत्माश्रितो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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