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________________ -५. ४९) सिद्धान्तसारः (११९ लोके सर्वत्र सर्वाणि क्षेत्राणि विविधानि च । जीवोऽवगाहयत्येष यत्र' क्षेत्रनिवर्तनम् ॥ ४४ सर्वस्मिन्नपि लोकेऽस्मिन्प्रदेशो नास्ति कश्चन । कर्मणा येन जीवेन भुक्त्वा मुक्तः समन्ततः॥४५ अत एव महात्मानो भग्नाः संसारदुःखतः। तपस्यन्ति परित्यज्य भावांस्तस्य विधायिनः॥४६ उत्सपिण्यवसपिण्योर्युगमित्यभिधीयते । तत्र ये सन्ति सर्वेऽपि समयावलिकादयः ॥ ४७ प्रत्येकं तेषु सर्वेषु' जायते भुवनत्रये । यत्तदुक्तं हि सूत्रः कालादिपरिवर्तनम् ॥ ४८ यद्यप्येवं भवाददुःखं कालादिपरिवर्तनात् । सहते हि तथाप्येष विरामं नैव गच्छति ॥ ४९ (क्षेत्रपरिवर्तन।)- इस त्रैलोक्यमें सर्व आकाशमें अनेक प्रकारके क्षेत्र हैं। उसमें यह जीव अवगाहन करता है वह क्षेत्रपरिवर्तन समझना चाहिये । इस संपूर्ण लोकमें ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, कि जो कर्मके उदयसे जीवने भोगकर नहीं छोड दिया है। अर्थात् सर्व प्रदेशोंमें यह जीव मरकर उत्पन्न हुआ है। इसलिये जो महात्मा हैं वे संसारदुःखसे भग्न होकर क्षेत्रभ्रमणके भावोंका त्याग कर तपश्चरण करते हैं ॥ ४४-४६ ।। विशेष स्पष्टीकरण-क्षेत्रपरिवर्तनके दो भेद हैं । एक स्वक्षेत्रपरिवर्तन और दुसरा परक्षेत्रपरिवर्तन । एक जीव सर्व जघन्य अवगाहनाको जितने उसके प्रदेश हैं उतनी वार धारण करके पीछे क्रमसे एक एक प्रदेश अधिक अधिककी अवगाहनाओंको धारण करते करते महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहनापर्यन्त अवगाहनाओंको जितने समयमें धारण कर सके उतने कालसमुदायको एक क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं। __ कोई जघन्य अवगाहनाका धारक सूक्ष्मनिगोदी लब्ध्यपर्याप्तक जीवलोकके अष्टमध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके अष्टमध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ, पीछे वही जीव उसही रूपसे उसही स्थानसे दुसरी तीसरी बारभी उत्पन्न हुआ। इसी तरह घनाङगुलके असंख्यातमें भागप्रमाण जघन्य अवगाहनाके जितने प्रदेश है उतनी बार उसी स्थानपर क्रमसे उत्पन्न हुआ। और श्वासके अठारहवे भागप्रमाण क्षुद्रआयुको भोग भोगकर मरणको प्राप्त हुआ। पीछे एक एक प्रदेशके अधिक क्रमसे जितने काल में सम्पूर्ण लोकको अपना जन्मक्षेत्र बनालें उतने कालसमुदायको एक परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । ( गोम्मटसार जीवकाण्ड ) ( कालपरिवर्तन।)- दसकोटि कोटि सागरोपम परिणामका उत्सर्पिणी काल है और अवसर्पिणी कालका प्रमाणभी इतनाही है। दोनों कालके प्रमाणको युग कहते हैं। उनमें जो समय, आवलिका, घटिका, मुहूर्त इत्यादिक भेद हैं उन सबमें यह जीव इस त्रैलोक्यमें उत्पन्न होता है । उसको सूत्रके ज्ञाताओंने कालपरिवर्तन कहा है ॥ ४७-४८॥ यद्यपि यह जीव कालपरिवर्तनरूप संसारसे दुःख सहता है, तथापि यह जीव विराम नहीं लेता है अर्थात् उसका भ्रमण संतत चालू रहता है । ४९ ।। १ आ. यत्तत् २ आ. रताः ३ आ. कर्मणा जायते भवी ४ आ. भवी ५ आ. ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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