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________________ १२२) सिद्धान्तसारः (५. ५४ येऽत्र संसारिणो जीवास्ते द्विधा परिकीर्तिताः । समनस्कामनस्कादिभेदमाश्रित्य कोविदः ॥५४ मनो द्विविधमाख्यातं द्रव्यभावप्रभेदतः । तत्र पुद्गलपाकककर्मजं द्रव्यमानसम् ॥५५ नो इन्द्रियस्य वीर्यस्यावरणोपशमक्षयात् । परात्मनो विशुद्धिर्या तद्भावमन इष्यते ॥ ५६ समनस्का निगद्यन्ते मनसा सहवर्तिनः । अमनस्का अतस्तेषां मनो नास्ति मनागपि ॥ ५७ द्वितीयेऽपि प्रजायन्ते स्थावरेतरभेदतः । संसारिणः पुनद्वैधा तत्कर्मप्रभवा इह ॥५८ पथिवी सलिलं तेजो मारुतश्च वनस्पतिः । पञ्चधा स्थावरा ज्ञेया विचित्रक्रमसंयुताः॥ ५९ पृथिवी पृथिवीकायः पृथ्वीकायिक इत्यपि । प्रत्येकं त्रिविधाः सर्वे जायन्ते भेदतो झमी ॥६० समाप्तपृथिवीकायनामकर्मोदयोऽपि वा । कायत्वेन न चाप्नोति पृथ्वी स पृथिवी मतः ॥ ६१ ( संसारीके समनस्क और अमनस्क ऐसे दो भेद।)- इस जगतमें जो संसारी जीव हैं उनके समनस्क जीव और अमनस्क जीव ऐसे दो भेद विद्वानोंने कहे हैं। मन द्रव्यमन और भावमन ऐसा दो प्रकारका कहा है । उसमें द्रव्यमन पुद्गलविपाकी कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है अर्थात् अंगोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे वह उत्पन्न होता है । ज्ञानावरण कर्म तथा वीर्यान्तराय कर्म इनका क्षयोपशम होनेसे और अंगोपांगनाम कर्मका उदय होनेसे गुणदोषका विचार करना, स्मरण करना, किसी पदार्थके ऊपर एकाग्रचिन्तनयुक्त होना इत्यादि कार्यके तरफ जब आत्मा अभिमुख होता है, तब उसके ऊपर उपकार करनेवाले जो पुद्गल मनरूपसे परिणत होते हैं उनको द्रव्यमन कहते हैं । भावमन-नो इंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम तथा वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेसे जो आत्मामें विशुद्धि प्रगट होती है उसे भावमन कहते हैं ॥ ५४-५६ ।। । जो जीव मनसे सहित हैं वे समनस्क कहे जाते हैं और जो जीव अमनस्क होते हैं उनको मन बिलकुल उत्पन्नही नहीं होता । मनसहित जीवको संज्ञी कहते हैं और जिनको मन नहीं है उनको असंज्ञी कहते है ॥ ५७ ।। अमनस्क जीवोंमेंभी स्थावर और त्रस ऐसे दो भेद हैं । एकेन्द्रिय संसारी जीव स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर होते हैं और जिनको त्रसनाम कर्मका उदय होता है वे जीव त्रस कहे जाते हैं । वे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय होते हैं ।। ५८ ॥ पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति ऐसे स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं । ये सब मनरहित अनेक भेदयुक्त और क्रमयुक्त हैं । इनको एक स्पर्शनेन्द्रियही होता है ।। ५९ ॥ पृथ्वी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक ऐसे तीन भेद पृथ्वीके होते हैं। इसी प्रकारसे सलिल, सलिलकाय और सलिलकायिक ; तेज, तेजस्काय और तेजस्कायिक; मारुत, मारुतकाय, मारुतकायिक; वनस्पति, वनस्पतिकाय, वनस्पतिकायिक ऐसे पांच प्रकारके स्थावरोंमें जल, अग्नि, वायु और वनस्पति प्रत्येकके तीन तीन भेद होते हैं, जो कि ऊपर बताये है ॥ ६० ॥ जिसमें पृथ्वीनाम कर्मका उदय हुआ है परंतु जिसने पृथिवीको शरीररूप धारण नहीं किया है उसको पृथ्वी कहते हैं ॥ ६१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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