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-५. १४)
सिद्धान्तसारः
(११३
तथा शुद्धनयेनासावमूर्तः कथ्यते जिनः । अशुद्धेन तु मूर्तोऽयं कर्मणा सहितो यतः॥१० एवम्भूतनयापेक्षष्टङ्कोत्कीर्ण इवामलः । अकर्ता कर्मणां जीवो निश्चयानिश्चितो जिनः ॥ ११ अनैवंभूततः कर्ता कर्मणामयमुच्चकैः । उच्चकनियुक्तैश्च कथितो जिननायकैः ॥ १२ यदि शुद्धनयादेव' लोकाकाशप्रदेशकः । अशुद्धन तथाप्यात्मा देहमात्रो निगद्यते ॥ १३ तथा निश्चयतो नार्थनिरुपाधिरयं पुनः । अनिश्चयेन सोपाधि पास्फटिकवद्भवेत् ॥ १४
(जीव अमूर्तिक और मूर्तिक है । )- यह आत्मा शुद्धनयकी अपेक्षासे अमूर्तिक है, ऐसा जिनेश्वर कहते हैं । तथा अशुद्धनयसे आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि वह कर्मोंसे बद्ध हुई है। बिजली, मेघगर्जना, वज्रपात इत्यादिकसे आत्मामें भय उत्पन्न होता है । इसलिये आत्मा कथंचित् मूर्तिक है । मद्यादिक सेवनसे आत्मा शक्तिविकल होती है अतः मूर्तिक है ॥ १० ॥
(जीवका कर्तृत्व और अकर्तृत्व । )- एवंभूतनयकी अपेक्षासे यह आत्मा टाकीके द्वारा उत्कीर्ण हुए पाषाणके समान निर्मल-कर्म रहित है। निश्चयनयसे आत्मा कर्मोका कर्ता नहीं है ऐसा जिनेश्वरोंने निश्चय किया है ।। ११॥
एवंभूतनयकी अपेक्षासे रहित होकर अर्थात् अशुद्धनयकी अपेक्षासे यह आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मोका कर्ता है ऐसा उच्चज्ञानी-केवलज्ञानी जिनेश्वरोंने कहा है ॥ १२ ॥
( आत्मा व्यापक और देहप्रमाण है।)- यद्यपि शुद्धनयसे आत्मा लोकाकाशके प्रदेश परिणाम है अर्थात् लोकपूरणसमुद्घातमें आत्मा संपूर्ण लोकाकाशको अपने असंख्यात प्रदेशोंको फैलाकर व्याप्त करती है तथापि अशुद्धनिश्चयसे यह आत्मा देहमात्र है, अर्थात् जो छोटा बडा देह उसे नामकर्मके उदयसे प्राप्त होता है, उसमें अपने प्रदेशोंको संकुचित अथवा विस्तृत करके रहती है । तथा आत्मा देहमें सर्वत्र स्वानुभूतिसे अनुभवमें आती है। वह प्रतिव्यक्तिको अपने अपने शरीरमें ज्ञानसुखादिगुणोंसे पूर्ण भरी हुई अनुभवमें आती है। इसलिये उसको अशुद्धनयसे देहप्रमाण मानने में प्रत्यवाय नहीं है ॥ १३ ॥
( आत्माका निरुपाधित्व तथा सोपाधित्व )- प्रभु जिनेश्वरने निश्चयसे यह आत्मा निरुपाधि है, ऐसा कहा है और अनिश्चयसे जपापुष्पयुक्त स्फटिकके समान सोपाधि कहा है। जैसे स्फटिक मणि जपापुष्पके संयोगसे लाल नहीं होनेपरभी लाल दिखता है वैसी यह आत्मा निरुपाधि है, परंतु कर्मके संयोगसे रागी, द्वेषी, मोही होती है ॥ १४ ॥
२ आ. मानो
१ आ. देष S.S. 15.
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