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________________ ११२) सिद्धान्तसारः (५. ८ सोऽपि द्वेधा भवेन्नित्यं ज्ञानदर्शनभेदतः । समस्तो वासमस्तो वा ज्ञेयः शुद्धनयात्पुनः ॥ ८ साकारं कथ्यते ज्ञानं निराकारं च दर्शनम् । आद्यमष्टविधं ज्ञानं चतुर्द्धा दर्शनं परम् ॥ ९ जिसकी होती है उसे उपयोग कहते हैं । सामान्यतः आत्माके ज्ञान और दर्शनको उपयोग कहते हैं । यह जीव उस उपयोगसे तन्मय है । वह ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ऐसा दो प्रकारका है। वह आत्माका लक्षण होनेसे आत्मामें सर्वदा विद्यमान है । शुद्ध नयसे इस आत्मामें पूर्ण ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग हैं; तथा व्यवहार नयसे असमस्त उपयोग है । अर्थात् मत्यादि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे तथा चक्षुर्दर्शनाद्यावरणके क्षयोपशमसे मतिज्ञानादि उपयोग तथा चक्षुर्दर्शनादि तीन दर्शनोपयोग आत्मामें रहते हैं ॥ ७-८ ॥ विशेषार्थ-पदार्थको जानने के लिये जो चैतन्यकी प्रवृत्ति होती है उसको उपयोग कहते हैं । वह बाह्य कारणोंसे और अभ्यन्तर कारणोंसे होता है । बाह्य कारण आत्मभूत और अनात्मभूत इस तरह दो प्रकारका है । आँख, कान आदिक इंद्रियसमूह आत्मभूत बाह्य कारण है और दीपक आदि अनात्मभूत बाह्य कारण हैं। अभ्यन्तर कारणभी आत्मभूत और अनात्मभूत ऐसे दो प्रकारके हैं। चिन्तादिकोंको सहायभूत ऐसी जो मनोवर्गणा, कायवर्गणा और वचनवर्गणा जिनको द्रव्ययोग कहते हैं, वह अंदर होनेसे अंतरंग कारण है। परंतु आत्मासे पृथक् होनेसे उनको अनात्मभूत कहते हैं। यह द्रव्ययोग जिसको निमित्त है ऐसा भावयोग वीर्यान्तराय कर्म, ज्ञानावरणकर्म, दर्शनावरण कर्मके क्षयसे तथा क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, जिसको आत्माकी प्रसन्नता कहते हैं, यह आत्मभूत अभ्यन्तर कारण है। इन कारणोंका संबंध होनेपर चैतन्यमय ऐसा जो आत्माका परिणाम पदार्थोंको जानने में और अवलोकनमें प्रवृत्त होता है उसे उपयोग कहते हैं। जब उपयोग पदार्थोको जाननेके लिये देखनेके लिये प्रवृत्त होता है तब वस्तुको आत्मा जानता है और देखता है। ( राजवार्तिक 'उपयोगो लक्षणं' इस सूत्रका भाष्यांश) ( ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके भेद । )- ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार है। वस्तुके विशेषस्वरूपको और सामान्यस्वरूपकोभी ज्ञान जानता है जैसे यह वटवृक्ष है। वटत्व विशेषको वृक्षत्वसामान्यके साथ जानना साकारोपयोग है इसीको ज्ञानोपयोग कहते हैं। तथा विशेषको न जानकर वस्तुकी सत्तामात्रका अवलोकन करना दर्शनोपयोग है। इसीको अनाकारोपयोग कहते हैं । पहिला ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका होता है अर्थात् मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगावधिज्ञान । दर्शनोपयोगके चक्षुर्दर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ऐसे चार भेद हैं । दोनोंके मिलकर बारह भेद होते हैं ॥ ९ ॥ १ आ. शुद्धाशुद्धनयात्पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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