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________________ पंचमः परिच्छेदः पञ्चानां हि पवित्राणां व्रतानां मूलमादिमम् । यत्तत्त्वार्थपरिज्ञानं तच्च वच्मि समासतः ॥१ यो यथावस्थितः' सर्वस्तस्य भाव इति स्फुटम् । तत्त्वं तत्त्वविदस्तथ्यं प्रथयन्ति तदद्भुतम् ॥२ । जीवाजीवालावा बन्धसंवराभ्यां सनिर्जराः । मोक्षश्चेति मतं तत्त्वं सप्तधा तत्त्ववेदिभिः ॥ ३ तत्र निश्चयतोऽनादिमध्यान्तेन प्रकाशिना । विशुद्धोपाधिमुक्तेन चैतन्याख्येन सर्वदा ॥ ४ असाधारणरूपेण प्राणेनानेन जीवति । योऽसौ जीव इति व्यक्तं जीवज्ञैः स निगद्यते ॥५ यथा शुद्धनयापेक्षः कर्मबन्धवशात्पुनः । चतुःसाधारणैः प्राणैर्जीवोऽयं जीवतीत्यपि ॥६ उभयेन निमित्तेन यो भावोऽस्योपजायते । उपयोगः स विज्ञेयस्तन्मयोऽसौ निगद्यते ॥७ पञ्चम अध्याय । जीवादि तत्त्वार्थों के स्वरूपका निर्दोष ज्ञान पवित्र पांच व्रतोंका आद्य मूल है, इसलिये मैं यहां संक्षेपमें उसका प्रतिपादन करता हूं ॥१॥ जीवादिक सर्व अर्थसमूह जो जैसा है उसका वैसा भाव होनाही सत्य तत्त्व है, ऐसा तत्त्वके ज्ञाता गणधर देव कहते है वह आश्चर्यचकित करनेवाला है। भावार्थ-जीवादिकोंके यथार्थ स्वरूपको जिसका आगममें वर्णन है उसको तत्त्व कहते हैं ॥ २ ॥ ( तत्त्वोंके सात भेद )- तत्त्वज्ञोंने जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे तत्त्वके सात प्रकार माने हैं ।। ३ ।। (जीवकी व्याख्या )- निश्चयनयसे जीवका चैतन्यस्वरूप है । वह आदि, मध्य और अन्तसे रहित है । अर्थात् वह अनादिनिधन होनेसे मध्यहीन है। यह चैतन्य उत्पत्तिहीन, अन्तहीन तथा मध्यहीन और सदा प्रकाशयुक्त है। यह विशुद्ध-कर्मरहित तथा उपाधि-रागद्वेषोंसे रहित है। यह चैतन्य सर्व कालमें रहता है । इस चैतन्यको असाधारण प्राण कहते हैं। क्योंकि यह प्राण जीवके विना अन्यपदार्थों में कदापि नहीं होता है। ऐसे चैतन्य प्राणसे जो सर्वदा जीता है उसे जीवके स्वरूपको जाननेवाले आचार्य व्यक्तरूपसे 'जीव' कहते हैं, शुद्ध नयकी अपेक्षासे जीवका स्वरूप कहा है। परन्त कर्मबन्धके वश होकर यह जीव चार साधारण प्राणोंसे जीता है। अतः व्यवहारनयसे जो चार प्राणोंसे जीवन धारण करता है उसे जीव कहते हैं । तात्पर्य यह जीव अनादि कर्मबंधसे परतन्त्र हआ है जिससे वह इन्द्रियप्राण, बलप्राण, आयप्राण, तथा श्वासोच्छवास प्राण ऐसे चार प्राणोंको धारण करता हआ जीता है, इसलिये उसे जीव कहते हैं ॥ ४-६ ॥ ( उपयोग किसे कहते हैं )- उभय निमित्तके आश्रयसे वस्तुस्वरूप जाननेके लिये जो वस्तुके प्रति भाव प्रेरा जाता है उसे उपयोग कहते हैं । अथवा उप-आत्माके समीप योग-योजना १ आ. यो यथावस्थितो ह्यर्थः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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