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________________ ११४) सिद्धान्तसारः शुभाशुभवशानेकसुखदुःखैकभुक्तिमान् । व्यवहारात्तथा शुद्धनयेनात्यन्तसौख्यभाक् ॥ १५ परमार्थनयेनासौ संसारेण विजितः । नित्यानन्दस्वभावत्वात् संसारी चापरेण सः ॥ १६ स्वात्मोपलब्धिरूपस्य स्वरूपस्य निषेधनात् । कर्मोदयादसिद्धोऽसौ सिद्ध एव सुनिश्चयात् ॥ १७ ऊद्ध्वं व्रज्यास्वभावेन विभावेन पुनर्न हि । भ्राम्यमाणो' भवाम्भोधौ चातुर्गतिककर्मणा ॥ १८ कर्ताऽमूर्तस्तथा भोक्ता स्वदेहप्रमितिर्भवी । उपयोगमयः सिद्धो ह्यात्मासावूर्ध्वगामिकः ॥ १९ मूर्त एव हि जीवोऽस्य भाट्टानां नास्तिकस्य च । तन्मतापह्नवायेदं ह्यमूर्तग्रहणं सताम् ॥ २० __ व्यवहारनयसे शुभाशुभ कर्मके वश होकर आत्मा अनेक सुखदुःखोंका भोक्ता है । अर्थात् जो शुभ और अशुभ कर्म इस आत्माकेद्वारा बांधे जाते हैं, उनका उदय आनेपर वह सुखोंका और दुःखोंका अनुभव करने लगती है। संसारमें इसका भोक्तृत्व इस प्रकारका है । परन्तु शुद्धनयसे आत्मा अनन्तसुखयुक्त है ।। १५ ।। (आत्मा संसारी और मुक्त है । )- आत्मा परमार्थनयसे संसाररहित है। क्योंकि यह हमेशा नित्य आनन्दस्वभावका धारक है और व्यवहारनयसे संसारी है ॥ १६ ॥ ( आत्मा सिद्ध और असिद्ध है । )- इस आत्मामें अशुद्धनयकी अपेक्षासे पूर्ण शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होनेसे असिद्धता है अर्थात् कर्मके उदयसे यह आत्मा असिद्ध है और शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा अष्टविध कर्मोंसे रहित है इसलिये शुद्ध सिद्धस्वरूप है ॥ १७ ॥ ( उर्ध्वगति और संसारभ्रमण । )- स्वभावसे आत्मा उर्ध्वगतिवाली है, परंतु विभावसे उर्ध्वगतिवाली नहीं है। चतुर्गतिमें कर्मके उदयसे यह आत्मा संसारसमुद्रमें भ्रमण कर रही है। यह आत्मा कर्ता, अमूर्त, भोक्ता, स्वदेह-परिमाण, संसारी, उपयोगमय असिद्ध और ऊर्ध्वगतिवाली है ॥ १८-१९ ॥ (अन्यमत तथा जैनमतसे आत्माका वर्णन )- भाट्ट-कुमारिलभट्टके अनुयायियोंको अर्थात् मीमांसकोंको भाट्ट कहते हैं। उनकी अपेक्षासे तथा नास्तिकोंकी-चार्वाकोंकी अपेक्षासे आत्मा मूर्त है । विशेष स्पष्टीकरण-मीमांसक आत्मा कर्मरहित-शुद्ध कभीभी नहीं होती ऐसा मानते हैं। "कोयला जैसा कालाही रहता है उसे कितनाभी धो डालो वह सफेद नहीं होता, वैसेही आत्माभी कभीभी शुद्ध नहीं होती ; सर्वज्ञपना उसे प्राप्त नहीं होता है" ऐसा मीमांसक कहते हैं। चार्वाक तो शरीरसे भिन्न आत्मा हैही नहीं ऐसा मानते हैं अर्थात् वे देहकोही आत्मा मानते हैं। इन दोनों मतवालोंके निराकरणार्थ जैनोंने आत्मा कथंचित् मूर्तिक और कथंचित् अमूर्तिक मानी है ॥ २० ॥ १ आ. नानन्त २ आ. भ्रम्यमाणो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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