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-४. २३४ )
सिद्धान्तसारः
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यज्ञानुष्ठानवद्वस्त्रं समस्तव्रतनाशकम् । महाव्रतधरा जातु न गृह्णन्ति महाधियः ॥ २२७ याचनं सीवनं शश्वत्प्रक्षालनविशेषणम् । निक्षेपादानमित्येतच्चोरादिहरणं तथा ।। २२८ वस्त्रे गृहीते चैतानि व्रतबाधाकराणि च । मनः संक्षोभ हेतूनि जायन्ते व्रतवतनाम् ॥ २२९ अथ लज्जाकरं नाग्न्यं रामाणां क्षोभकारणम् । कर्मास्त्रवनिमित्तं तन्न युक्तं मुक्तकर्मणाम् ॥ २३० तदेतदपि मिथ्यात्वं विपरीतं हतात्मनाम् । यदेवाद्यं व्रतं पूतं तदेवासंमतं यतः ॥ २३१ नाग्न्यं लज्जां करोत्येव स्वस्य चैतत्परस्य वा । न स्वस्य वीतरागाणां लज्जाक्षोभाद्यभावतः ॥ २३२ परस्य करणे तस्य स्वस्यायातं किमेतया । अन्यः कर्ता विभोक्तान्यः साङ्ख्यस्येव मतं भवेत् ॥ २३३ मलिनाङ्गं सुबीभत्सं नग्नं लुञ्चितमस्तकम्। दृष्ट्वा साधुं कथं रामाः क्षुभ्यन्ति क्षीणविग्रहम् ॥ २३४
जैसे यज्ञ करना अर्थात् पशुओंका यज्ञकुण्डमें हवन करना हिंसाका कारण है वैसे वस्त्रधारण करना संपूर्ण व्रतनाशक है । इसलिये महाबुद्धिमान् महाव्रतधारक मुनिराज वह (वस्त्र) कदापि धारण नहीं करते हैं ।। २२७ ।।
याचना करना, सीना, हमेशा जलसे धोना, रखना, और ग्रहण करना ऐसे दोष वस्त्र धारण करनेसे उत्पन्न होते हैं । ये सब दोष अहिंसादि व्रतोंको बाधक हैं । जो व्रत-धारक आचेलक्यव्रतके धारक हैं उनको वस्त्र धारण करने की इच्छासे प्रथमतः मन में क्षोभ उत्पन्न होता है ॥ २२८॥
( श्वेताम्बरों का आक्षेप ) - नग्नतासे स्त्रियोंको लज्जा उत्पन्न होती है और उनके मन में क्षोभ उत्पन्न होता है । तथा कर्मागमनका वह निमित्त होता है । इसलिये योग्य कार्य करनेवाले मुनियोंको नग्नता धारण करना योग्य है ।। २२९-२३० ।।
( आक्षेपनिराकरण) - मिथ्यात्वसे जिनका आत्मघात हुआ हैं, ऐसे श्वेताम्बरों का यह विपरीत मिथ्यात्व है । क्योंकि आचेलक्य से जो पहिला पवित्र व्रत अर्थात् अहिंसाव्रत रक्षा जाता है उससे ये श्वेतांबर लोग असंयम होता है ऐसा उलटा कहने लगे हैं अर्थात् यह कथन विपरीत मिथ्यात्वका द्योतक ।। २३१ ।।
(श्वेताम्बरोसे प्रश्न) – यह नग्नता मुनियों के मनमें लज्जा उत्पन्न करती है अथव लोगों के मनमें लज्जा उत्पन्न करती है ? स्वतः मुनियोंको लज्जा उत्पन्न होती है ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि वे वीतराग होते है । इसलिये यह आपका मत सांख्यमतके समान मालूम पडता है क्योंकि सांख्योंने प्रकृति सर्वज्ञ मानी है, और आत्माको असर्वज्ञ माना है । प्रकृतिको बंधमोक्ष होते है और आत्माको बंध तथा मोक्षरहित माना है; यह उनका मानना जैसा विपरीत हैं, वैसा नाग्न्यसे हिंसा होती है ऐसा श्वेताम्बरोंका प्रतिपादन करनाभी विपरीतमिथ्यात्व है । क्योंकि अहिंसा महाव्रतका साधक है, तो भी हिंसाका हेतु है ऐसी विपरीत कल्पना विपरीतमिथ्यात्वका कार्य है ।। २३२-२३३ ।।
( स्त्रियों का मन क्षुब्ध नहीं होता) - जिसका शरीर मलिन है, तथा ग्लानि पैदा करनेवाला
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