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________________ १०६) (४. २३५ सुवस्त्रं गन्धमालाढ्यं कामकल्पितविग्रहम् । इद्देशं पुरुषं दृष्ट्वा रामा रामप्रकाशिका ।। २३५ आचेलक्यं हि सर्वेषां व्रतानां मूलमुत्तमम् । स्त्रीपरीषहभग्नानां कथं पाखण्डिनां भवेत् ॥ २३६ लज्जाशीतादिदुःखानां कारणत्वान्न संमतम् । नाग्न्यं केषां ' मतं तेषां दुःखदं न महाव्रतम् ॥ २३७ येभ्यो येभ्यः पदार्थेभ्यो विना पीडा प्रजायते । ते ते सर्वेऽपि सङ्ग्राह्या मधुमांससुरादयः ।। २३८ रागद्वेषमदक्रोधलोभमूलमनर्थकृत् । वस्त्रं हि त्यजतां लज्जा गृह्णतां नेति कौतुकम् ।। २३९ यस्या मिथ्यात्वदोषेण जातायाः सुमहद्धकम् । पदं चक्रधरादीनामपि नैवोपजायते ।। २४० है, जिसका मस्तक केशलोचसे युक्त है ऐसे कृश शरीरवाले नग्न साधुको देखकर स्त्रियाँ कैसे क्षुब्ध होंगी ? अर्थात् साधुकी नग्नता स्त्रियोंको क्षुब्ध नही कर सकती ।। २३४ ॥ जिसके वस्त्र सुंदर है, जो इत्र और पुष्पमालाओंको धारण करता है, जिसका शरीर मदनके समान सुंदर है ऐसे पुरुषको देखकर स्त्री अपना रागभाव - प्रेम प्रगट करती है । यह आचेलक्य स्थितिकल्प सर्व व्रतोंका उत्तम मूल है । अर्थात् इसके आधारसेही सब अहिंसादि व्रतसमूह स्थिर रहता हैं अन्यथा नहीं । जो स्त्रीपरिषहसे भग्न हुए हैं ऐसे पाखंडी लोग इसे धारण करने में कैसे समर्थ होंगे ? ।। २३५ ।। सिद्धान्तसार: लज्जा, ठण्डी आदि दुःख नग्नतासे उत्पन्न होते हैं, इसलिये कई पाखंडियोंको यह नान्य मान्य नहीं होता । उनको यह महाव्रत दुख:द है अर्थात् जो लज्जादिकसे पीडित हैं उनको नाग्न्य सौख्यदायक नहीं है । परंतु जो लज्जा, शीत, आदि दुःख सह सकते हैं, जो स्त्रीपरीषहसे भग्न नहीं हुए उनको इस नाग्न्यकी योग्यता ज्ञात होनेसे वेही उसको पूर्णतासे निभाते हैं । अन्य जनोंको इसका धारण करना शक्य नहीं ।। २३६ - २३७ ॥ यदि नाग्न्य दुःखदायक होनेसे त्याज्य है, तो जिन जिन पदार्थोंके विना पीडा होती है। वे पदार्थ सुखके लिये ग्रहण करने चाहिये ऐसा कहते हो तो मधु, मांस, मदिरा आदि पदार्थोंको ग्रहण करो; क्योंकि इनके विना आपके दुःख होता होगा ।। २३८ ।। राग, द्वोष, मद-गर्व, क्रोध और लोभ उत्पन्न होनेमें वस्त्र मूल कारण है और इससे अनर्थ उत्पन्न होता है । अतः ऐसे वस्त्रका त्याग करना लज्जाका हेतु है और उसका ग्रहण करना लज्जाका हेतु नहीं है ऐसा कहना हमको आश्चर्यचकित करता है ।। २३९ ।। 46 मिथ्यात्वदोष से स्त्री- पर्याय प्राप्त होता है । अतः उस पर्याय में जीवको चक्रवर्ति आदिकोंका महैश्वर्य प्राप्त नहीं होता । अर्थात् जिस स्त्रीको चक्रवर्ति आदि पदभी प्राप्त नहीं होते, उसे १ आ. नाग्न्यं चेत्संमतम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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