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________________ ( ४. १२१ प्रत्यक्षेण गृहीतो वा स वस्त्रादिपरिग्रहः । ग्रन्थमाभ्यन्तरं तस्यास्तद्रागादिकमादिशेत् ॥ २२१ शरीरस्योष्मणा जन्तुविघातैक निवारणम् । वस्त्रमादीयते ताभिरथ रागाद्यभावतः ॥ २२२ तन्न युक्तं वचस्तेषामचेलव्रतधारिणाम् । यतस्तीर्थकरादीनां हिंसकत्वं प्रजायते ॥ २२३ अचेलक्यं व्रतं तेषां नासिद्धं हि तदागमे । स्थितिकल्पस्य मध्येऽस्य तैरेव प्रतिपादनात् ॥ २२४ किं च वस्त्रे गृहीतेऽपि पाणिपादाद्यनावृतेः । जन्तूनामुपघाताच्च तथावस्थित एव सः ।। २२५ यूकालिक्षादिजन्तूनां मूर्च्छनायाश्च कारणं । वस्त्रं हिंसाङ्गमर्हद्भिर्गृह्यते कि महात्मभिः ॥ २२६ १०४) सिद्धान्तसार: जो वस्त्रादि बाह्य परिग्रह उन्होंने प्रत्यक्षसे ग्रहण किये हैं, वह उनके अभ्यन्तर रागादि परिग्रहोंको सुझाता है । अर्थात् वस्त्रादि परिग्रह होनेसे उनके अन्तरंग में रागादिक मोहविकार हैं ऐसा सिद्ध होता है ॥ २२१ ॥ ( श्वेतांबर कहते हैं ) - यदि वस्त्र ग्रहण नहीं किया जाता तो शरीरकी उष्णता से हवा में रहनेवाले जन्तुओं का नाश होगा । उनका नाश न होवें इस हेतुसे आर्यिकायें वस्त्र ग्रहण करती हैं । उनके मनमें रागादिक अभ्यन्तर परिग्रह नही हैं । अर्थात् आपने ' रागादिक विकारसे उन्होंने परिग्रह धारण किया है' ऐसा जो आक्षेप उनके ऊपर किया है वह व्यर्थ है ।। २२२ ॥ (उत्तर) - श्वेतांबरों का यह वचन योग्य नहीं है । जन्तुओंका विघात टालने के लिये वस्त्र ग्रहण करते हैं, तो अचेलव्रत धारण करनेवाले अर्थात् निर्वस्त्र - संयम धारण करनेवाले तीर्थंकरको हिंसाका दोष लग जायेगा, ऐसा मानना पडेगा । भावार्थ - तीर्थंकरोंने वस्त्रका त्याग किया था, अतः उनके खुले अवयवोंकी उष्णतासे जीवनाश होने से वे हिंसक थे ऐसा मानना पडेगा, जोकि मानना आपको अनिष्ट होगा । दशविधस्थिति कल्पोंमें 'आचेलक्य' आपनेभी माना है और अब सवस्त्रसंयमको अहिंसाका हेतु मानने लगे हैं, अतः यह आपका कथन परस्पर विरुद्ध है ।। २२३ ॥ अतः आचेलक्य व्रत श्वेतांबरोंको असिद्ध है - अमान्य है ऐसा नहीं है, क्योंकि उनके आगममें स्थितिकल्पके दश भेदोंमें पहिला कल्प अचेलक्य माना है ।। २२४ ॥ पुनः आपके कथनानुसार वस्त्रग्रहण करनेपरभी उससे सर्व अवयव आच्छादित नहीं होते हैं अर्थात् हाथ पाँव, आँखें, नाक, कान, मस्तक आदि अवयव खुले रहतेही हैं और उनकी उष्णतासे प्राणियोंकी हिंसा जैसीकी वैसीही रही ।। २२५ ॥ वस्त्र, जूं, लीख आदि सूक्ष्म जन्तुओंकी उत्पत्तिका कारण है तथा मूर्च्छनाका - ममत्त्वका कारण है । ऐसा हिंसाका कारण वस्त्र महात्माओंके द्वारा कैसे ग्रहण किया जाता है ? अर्थात् वस्त्र धारण करनेसे हिंसा तो टलतीही नहीं परंतु उससे मनमें ममत्व उत्पन्न होता है । वस्त्र से ऐसे दो दोष उत्पन्न होते हैं ।। २२६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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