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________________ -४. २२०) सिद्धान्तसारः ( १०३ अत एव गतिर्नास्ति सप्तमे नरके स्त्रियाः। ततोऽनकान्तिको दोषो न स्यादिष्टविघातकृत् ॥२१३ तन्न ज्ञानप्रकर्षोऽस्ति मोक्षहेतुः प्रमाणतः । स्त्रीणां तृतीलिंगस्य यथा नायमहेतुतः॥२१४ तद्धतः संयमाभावान्नासौ तास निगद्यते । संयमोऽपि हि सग्रन्थस्तासां सागारिणामिव ॥२१५ गृहिसंयमकेनापि' यदि मोक्षः प्रजायते । दीक्षाग्रहणवैयर्थ्यं कथं केन निवार्यते ॥२१६ अथ निग्रंथ एवायं तन्न सत्यं कदाचन । सचेलसंयमत्वेन सग्रन्थत्वप्रसङ्गतः ॥२१७ सचेलसंयमो मुक्तिहेतुरित्यप्यसुन्दरम् । तदागमप्रसिद्धत्वादस्माकं प्रत्यसिद्धितः ॥२१८ न साधूनामवन्द्यत्वात्संयमःस्त्रीषु विद्यते । मोक्षहेतुर्गहस्थानां न यथा बुद्धिशालिनाम् ॥ २१९ बाह्याभ्यन्तरतो वापि सग्रन्थत्वान्न जायते। निहीनशक्तिकानां च स्त्रीणां मुक्तिर्गृहस्थवत् ॥२२० । अधिक है ऐसा अभिप्राय है । परमार्थतः पुरुषोंमेंही अपुण्यप्रकर्ष है ऐसा सिद्ध होता है। मायाका प्रकर्ष यदि स्त्रियोंमें सिद्ध होता तो अपुण्यप्रकर्ष सिद्ध होनेसे रत्नत्रयरूप अविकल कारणोंका प्रकर्षभी सिद्ध होता परंतु ऐसा नहीं है ॥ २१०-२१२ ॥ सप्तमनरकमें स्त्रियोंकी गति नहीं है इसलिये उपयुक्त जो अनैकान्तिक दोष आपने हमें (दि. जैनोंको) दिया था वह हमारे इष्ट साध्यमें (स्त्रियोंको मोक्षप्राप्ति नहीं है इस विषयमें) विघातक नहीं है। इसलिये ज्ञानका प्रकर्ष, जोकि मोक्षप्राप्तिमें कारण है वह स्त्रियोंको नहीं है। उसही प्रकारसे ज्ञानप्रकर्ष नपुंसकोंमेंभी नहीं है। क्योंकि वहांभी मोक्षके अविकलकारणका सद्भाव नहीं है ॥ २१३-२१४ ॥ ___ स्त्रियोंको संयमका अभाव होनेसे वे अविकलकारणोंकी प्राप्ति करने में समर्थ नहीं हैं। और उनको गृहस्थोंके समान परिग्रहयुक्त संयम है। गृहस्थ-संयमसेभी यदि मोक्षप्राप्ति होगी तो दीक्षाग्रहणकी व्यर्थता कौन कैसे दूर कर सकेगा ? अर्थात् जिनदीक्षा ग्रहण करना व्यर्थही होगा। ॥ २१५-२१६ ॥ ___अब कदाचित् कहोगे कि, आर्यिकाका जो संयम है वह निग्रंथ संयम है ऐसा कहना योग्य नहीं है क्योंकि, वह सवस्त्र-संयम होनेसे परिग्रहयुक्त संयमका प्रसंगही है। सचेल-संयम मुक्तिका कारण है यह अर्थसे सुंदर वचन तुम्हारे आगममें प्रसिद्ध है परंतु ऐसे अर्थका प्रतिपादक आगम हमारेलिये असिद्ध है, प्रमाण नहीं है ।। २१७-२१८ ॥ स्त्रियाँ साधूओंसे अवन्द्य होनेसे उनमें निग्रंथ संयम नहीं है । जैसे बुद्धिशाली गृहस्थोंका संयम मोक्षहेतु नहीं है ॥ २१९ ॥ बाह्याभ्यन्तरपरिग्रह होनेसे स्त्रियाँ सग्रन्थ हैं तथा वे हीनशक्तिवाली होनेसे उनको गृहस्थोंके समान मुक्ति नहीं है ।। २२० ।। १ आ. गृहस्थसंयमेनापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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