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________________ १०२) सिद्धान्तसारः (४. २०६ कुर्वाणो भोजनं नाथो लोकर्यन्नावलोक्यते । कि विद्याविशेषण तथातिशयतोऽपि वा ॥२०६ आये निर्ग्रन्थताहानिद्वितीये किं न जायते। भोजनाभावरूपो वातिशयः सर्वसाधकः ॥ २०७ अन्यद्यदुच्यते मूढस्तत्त्वनिह्नवकारिभिः। तस्मिन्नेव भवे स्त्रीणां मुक्तियुक्तिन सा क्वचित् ॥२०८ नियमादृद्धिसंपन्नं ज्ञानमात्रमपि स्त्रियः । यस्या नास्तीह सर्वज्ञा सा कथं कथ्यतेऽधमैः ॥ २०९ मुक्तिरस्त्येव रामाणामथाविकलकारणात् । पुंवद्धतोरसिद्धत्वान्नैतच्चारु कदाचन ॥२१० ज्ञानादीनां प्रकर्षोऽयं मोक्षहेतुरुदीरितः । स न स्त्रीषु प्रकर्षत्वादपुण्यादिप्रकर्षवत् ॥ २११ मायापरप्रकर्षण व्यभिचारो न युज्यते । मायाबाहुल्यमात्रस्य स्त्रीषु शश्वनिरूपणात् ॥ २१२ यदि भोजन करते हुए केवलीको लोग नहीं देखते हैं ऐसा आप (श्वेताम्बर) मानते हो तो इसमें हम पूछते हैं कि विद्याविशेषसे वे दीखते नहीं हैं अथवा केवलज्ञानके अतिशयसे वे नहीं दिखते हैं ? आद्य पक्षमें निग्रंथता-हानि होगी क्योंकि विद्याविशेषसे युक्त होनेपर जैसे विद्याधर निर्ग्रन्थतासे रहित होते हैं वैसा केवली विद्याकेद्वारा अदृश्य होनेसे निर्ग्रन्थतासे रहित होंगे। अन्य जनोंमें असंभवी अतिशय उनमें है, जिससे वे भोजन करते हुए नहीं दीखते हैं ऐसा यदि मानोगे तो भोजनका अभावरूप अतिशय माननाही योग्य होगा क्योंकि वह प्रमाणसे सिद्ध हुआ है और सर्व गुणोंकी सिद्धि करनेवाला है ।। २०६-२०७ ॥ वस्तुस्वरूपको छिपाकर रखनेवाले श्वेताम्बरोंने अन्यभी ऐसा कहा है “ उसी भवमें स्त्रियोंको मुक्ति होती है " परंतु उसमें कहांभी युक्ति नहीं हैं ।। २०८ ॥ स्त्रीको नियमसे ( ऋद्धिसम्पन्न ) चारित्रसंपन्न-महाव्रतयुक्त ज्ञानमात्रभी नहीं है। वह स्त्री सर्वज्ञानवाली केवलज्ञानयुक्त होती है ऐसे इन अधमोंने कैसा कहा है ? ।। २०९ ॥ ( श्वेताम्बर स्त्रियोंको मुक्ति सिद्ध करनेकेलिये अनुमान कहते हैं )- " स्त्रियोंको अविकलकारण होनेसे मुक्ति होती है जैसे पुरुषको होती है । आचार्य कहते हैं, कि इस अनुमानमें 'अविकलकारण होनेसे' यह हेतु असिद्ध होनेसे यह अनुमान कभीभी युक्तियुक्त नहीं है । यहां अविकलकारण जो रत्नत्रय वह परमप्रकर्षको प्राप्त होकर मुक्तिका कारण है अथवा तन्मात्ररत्नत्रयमात्र मुक्तिका कारण है ? तन्मात्र मुक्तिका कारण है तो गृहस्थकोभी तन्मात्र-रत्नत्रयमात्र कारणसे मुक्तिप्रसंग प्राप्त होगा। यदि परमप्रकर्षको प्राप्त ऐसा कारण स्त्रीमुक्तिके लिये हैं ऐसा कहोगे तो स्त्रियोमें कारणोंका परमप्रकर्ष नहीं होता है । ज्ञानादिक कारणोंका प्रकर्ष, जो कि मोक्षहेतु है ऐसा कहा है, वह स्त्रियोंमें नहीं होता है; क्योंकि वह प्रकर्ष है । जैसे अपुण्यका प्रकर्ष अर्थात् पापका प्रकर्ष स्त्रियोंमें नहीं है वैसा मोक्षके कारणोंकाभी परमप्रकर्ष स्त्रियोंमें नहीं है। इसके ऊपर श्वेताम्बर कहते है, कि अपुण्यका प्रकर्ष स्त्रियोंमें नहीं है यह योग्य नहीं हैं क्योंकि मायाप्रकर्ष स्त्रियोंमें हैं इससे अपुण्यप्रकर्ष नहीं है ऐसा कहना व्यभिचारी है। दिगंबर कहते हैं कि यह कहना योग्य नहीं है। मायाबाहुल्यही-मायाकी प्रचुरताही स्त्रीमें है, ऐसा यहां समझना चाहिये। अर्थात् माया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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