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-४. १३५)
सिद्धान्तसारः
सर्वत्रावयवत्वेन विपक्षे चाप्रवृत्तितः । आकाशादौ सपक्षे तु प्रासादादौ प्रवर्तनात् ॥ १३० विशिष्टकार्यमार्याणां कारणं नाति वर्तते । तस्मात्तस्य तु यः कर्ता स महानीश्वरः प्रभुः ॥१३१ आगमेनापि सिद्धत्वाद्विश्वरूपप्ररूपणात् । सर्वेषां हेतुभूतत्वात्सर्वज्ञः शशिशेखरः ॥ १३२ एतत्सर्वं हि विज्ञानं शुद्धबोधोद्धचेतसाम् । विचारातिक्रमाद्वन्ध्यासुतव्यावर्णनं यथा ॥ १३३ विश्वकर्ता स सर्वज्ञो न कश्चिन्मानगोचरः । केवलं दृग्विमोहेन भ्रान्तेरेवास्य साधिका ॥१३४ अध्यक्षं साधनं नास्य तत्रासत्प्रतिपत्तितः । हेत्वाभासात्मकत्वेन कार्यादे नुमापि वा ॥ १३५
अवयव रचनायुक्तत्व विपक्ष जो आकाश उसमें नहीं है, क्योंकि आकाश निरवयव है। उसके अवयव नहीं है, इसलिये कार्यत्वहेतु विपक्षमें न जानेसे अनैकान्तिकताभी कार्यत्वहेतुमें न रही, और सपक्षभूत प्रासादादिकोंमें अवयवरचना होनेसे कार्यत्वहेतु उसमें चला जाता हैं अर्थात् पक्ष और सपक्षमें कार्यत्व हेतु है और विपक्षमें नहीं है इसलिये यह सद्धेतु है ॥ १२९-१३० ॥
__ जो विशिष्ट तरुतन्वादिक कार्य हैं वे कारणको उलंघ कर स्वयमेव नहीं होते हैं अर्थात् उनका कर्ता कोई बुद्धिमान् व्यक्ति मानना पडता है । अतः ऐसे विशिष्ट कार्योंका जो कर्ता है, वह महान् प्रभु ईश्वर है ऐसा समझना चाहिये ॥ १३१ ॥
__ वह चंद्रशेखर अर्थात् ईश्वर आगमसेभी सिद्ध है ; क्योंकि आगममें उसके विश्वरूपका निरूपण किया है (उस ईश्वरको सर्वत्र आँखें होती है। उसके पाँव सर्व जगतमें फैले हैं वह परमाणुओंको लेकर अपने बाहुओंसे स्वर्ग और पृथ्वी उत्पन्न करता हैं ऐसा ईश्वर एक है ।)वह सर्व पदार्थोंकी उत्पत्तिमें हेतु है, अतः वह सर्वज्ञ हैं ॥ १३२ ॥
यहांतक नैयायिकोंने ईश्वर सृष्टिका कर्ता है ऐसा अपना पक्ष सिद्ध किया है। अब जैनाचार्य · ईश्वर सृष्टिकर्ता होनेसे सर्वज्ञ है ' इस पक्षका खंडन करते हैं । — ईश्वर सृष्टिकर्ता होनेसे सर्वज्ञ है, ऐसा नैयायिकोंका युक्तिज्ञान वन्ध्यासुतके वर्णनके समान है; क्योंकि शुद्ध ज्ञानसेसम्यग्ज्ञानसे जिनका चित्त निर्मल हुआ है ऐसे लोगोंके विचारको उल्लंघनेवाला हैं।। १३३ ॥
ईश्वर सृष्टिका कर्ता है, इस बातकी अध्यक्षसे-प्रत्यक्षसे सिद्धि नहीं होती ; क्योंकि ईश्वरको साक्षात् करनेवाला कोई इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं है । तथा जो नैयायिकोंने कार्यत्वादिक हेतु दिये हैं, वे भी हेत्वाभास-स्वरूपी हैं इसलिये “ सर्वं तन्विन्द्रियादिकं बुद्धिमत्पूर्व कार्यत्वाद्धटवत्" यह अनुमान अनुमानाभास है ।। १३४ ॥
कार्य- 'अवयवयुक्त पदार्थको कार्य कहना'ऐसी जो कार्यत्वकी व्याख्या है वहभी योग्य नहीं है, क्योंकि उस व्याख्यासे नैयायिकोंके इष्टका विघात होता है अर्थात् तन्वादिक पदार्थों में
१ आ. सपक्षेषु
२ आ. वैश्व ३ आ. विज्ञानां ४ आ. साधकं
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