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________________ सिद्धान्तसारः (४. १२५ कश्चिदाह न सर्वज्ञः कर्मणामावतिक्षयात। किन्त्वशेषस्य विश्वस्य कर्तृत्वात्संमतः स च ॥१२५ कृत्रिमत्वं हि विश्वस्य न चासिद्धमहेतुतः । तद्धेतोविद्यमानत्वात्कार्यत्वादेश्च सर्वथा ॥ १२६ तथा हि बुद्धिमत्पूर्व सर्वं तन्विन्द्रियादिकम् । कार्यत्वाद्धटवच्चासौ बुद्धिमानीश्वरो मतः॥ १२७ सन्निवेशविशिष्टं यद्यच्चैतन्यविजितम् । तत्कार्य स्वत एवेति जायते न पटादिवत् ॥ १२८ न चासिद्धं विरुद्धं वा नाप्यनैकान्तिकं पुनः । कार्यादिकमिदं सर्व सिद्धत्वादिनिरूपणात् ॥ १२९ (ईश्वर सृष्टिकर्ता होनेसे सर्वज्ञ है, ऐसा नैयायिक वैशेषिकोंका पूर्व पक्ष । )- कोई नैयायिक कहता है कि संपूर्ण कर्मोके आवरणोंका क्षय होनेसे सर्वज्ञ नहीं होता, किन्तु संपूर्ण सृष्टिका कर्ता होनेसे वह सर्वज्ञ होता है, और ऐसा सर्वज्ञ बुद्धिमानोंको पूज्य है। यह जगत् कृत्रिम है, यह बात असिद्ध नहीं है । क्योंकि उसकी असिद्धता सिद्ध करनेके लिये कोई हेतु नहीं है अर्थात् जगत् अकृत्रिम है उसे किसीने उत्पन्न नहीं किया ऐसा सिद्ध करनेवाला कोई हेतु नहीं है । तथा जगत्का कृत्रिमत्व सिद्ध करनेके लिये कार्यत्वादिक सद्धेतु सर्वथा तयार है, सन्नद्ध है। कार्यत्व सद्धेतुकाही अब हम समर्थन करते हैं ।। १२५-१२६ ॥ ___सर्व शरीर, इन्द्रिय आदिक पदार्थ बुद्धिमान् कर्तासे बने हुए हैं। क्योंकि वे कार्य हैं जैसे घट कार्य होनेसे उसका बुद्धिमान् कर्ता है। यहां वह बुद्धिमान् ईश्वर समझना चाहिए। अब कार्य किसको कहना चाहिए वह हम कहते हैं । जो सन्निवेश विशिष्ट हैं अर्थात् रचनाविशेषसे युक्त है, जिसमें चैतन्य नहीं है ऐसा कार्य वस्त्रके समान स्वतः उत्पन्न नहीं होता है । उसको कोई उत्पन्न करनेवाला हो तो वह उत्पन्न होता है अन्यथा उसकी उत्पत्तिही नहीं होती ।। १२७-१२८ ।। __यह हमारा कार्यत्व हेतु असिद्ध, विरुद्ध अथवा अनैकान्तिकभी नहीं है । " सर्व शरीर इन्द्रियादिक पदार्थ बुद्धिमान हेतुसे उत्पन्न होते हैं; क्योंकि वे कार्य हैं " ऐसा अनुमानवाक्य है। इसमें सर्व शरीर इन्द्रियादिक पदार्थ पक्ष है, हेतु कार्यत्व है और वह हेतु पक्षमें जानेसे असिद्ध नहीं है । साध्यसे विरुद्ध अर्थात् विपक्षमें हेतु जब जाता है तब वह विरुद्ध हेत्वाभास होता है। यहां कार्यत्व हेतु अबुद्धिमत्पूर्व ऐसे आकाशादिकोंमें नहीं जाता है, इसलिये कार्यत्वहेतुकी विरुद्धताभी नहीं है। तथा हेतु जब पक्ष, सपक्ष और विपक्षमें जाता है तब वह अनेकान्तिक होता है। यहां कार्यत्व हेतू तो शरीर इन्द्रियादि पक्षरूप पदार्थों में है और सपक्ष घट,प्रासाद इत्यादिकोमेंभी विद्यमान होनेसे कार्यत्व हेतुकी सपक्षमेंभी सत्ता है । तथा विपक्ष जो आकाश, जो कि कार्य नहीं है बुद्धि मत्पूर्व नहीं है, उसमें कार्यत्वहेतु नहीं जाता है अतः विपक्षमें नहीं जानेसे अनैकान्तिक नहीं है। यही अभिप्राय अधिक स्पष्ट किया जाता है-कार्यत्वका अर्थ अवयव रचनासे युक्तत्व होता है। यह १ आ. स च इति नास्ति २ आ. न वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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