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________________ ( ४. १३६ कार्यस्यावयवत्वादिसाधनं नैव साधकम् । यतोऽवयवसामान्याद्दष्टमिष्टविघाततः ॥ १३६ तच्चावयव सामान्यं विद्यते गगनादिषु । न तु कार्यत्वमित्येवं व्यभिचारोपलम्भतः ॥ १३७ नन्वाकाशमिदं तावत्सर्वथावयवच्युतम् । मतं स्याद्वादिनां तस्य सर्वशून्यत्वयोगतः ॥ १३८ सदेव कुरुते कार्यं तन्वादिकमिदं यदि । ईश्वरस्तत्कथं न स्याद्दोषोऽकिञ्चित्करो महान् ॥१३९ अतः करणे तस्य विरोधः केन वार्यते । न ह्यसत्क्रियमाणं तद्दृष्टमिष्टं विपश्चिताम् ॥ १४० ९२) सिद्धान्तसारः अवयवत्व रहकर वह अवयव सामान्यमें भी जाता है, जो कि अवयवसामान्य कार्यरूप नहीं है, अर्थात् ईश्वरसे नहीं बनाया जानेपरभी अकार्य होनेसेभी अवयवोंमें रहता है जैसे मनुष्यत्व सामान्य होनेपर हस्तपादादिकोंमें वह रहता है । अतः अवयवत्व उसमें है और सामान्य पदार्थ ईश्वरने नहीं बनाया हैं ऐसा नैयायिक मानते हैं । अतः यह उनके लिये इष्टविघातक हुआ । तथा यह अवयवसामान्य गगनमें, आत्मामें दिशामें और कालमें नैयायिकोंने माना है परंतु वे आकाशादिक पदार्थ उन्होंने कार्यरूप नहीं माने हैं। इस प्रकारसे 'कार्यत्व' हेतु व्यभिचारी होनेसे विपक्षोंमें आकाशादिकों में जाता है । अतः कार्यत्व हेतु अनैकान्तिक है ।। १३५ - १३६ ॥ इसपर नैयायिक कहते हैं, कि आकाश अवयवरहित है, उसमें अवयव नहीं हैं । अतः कार्यत्व हेतु उसमें प्रविष्ट नहीं होनेसे व्यभिचारी नहीं है ऐसा कहना भी योग्य नहीं है । इस प्रकार से आकाशका वर्णन करोगे तो आकाश सर्वतः शून्य है ऐसा दोष आपको स्याद्वादी देंगे । अर्थात् अवयवरहितता वन्ध्यासुतके समान असद्रूप है । अथवा परमाणु जैसे स्वतः के एक प्रदेशको छोडकर अन्य प्रदेशको धारण नहीं करता है । अतः उसे निरवयव कहते हैं । वैसे आकाशको यदि मानोगे तो आकाशके व्यापकपनेका विघात होगा ।। १३७ - १३८ ॥ ईश्वर शरीररहित होता हुआ, यदि शरिरादिक कार्य करता है ऐसा कहोगे तो ह पादादिरहित ईश्वर पृथ्वीनिर्माणमें समर्थ नहीं होगा, इसलिये ईश्वर में अकिंचित्करत्व दोष उत्पन्न होता है । असत् से ईश्वर सृष्टिको उत्पन्न करता है ऐसा यदि मानोगे तो उसके कर्तृत्वमें विरोध उत्पन्न होगा अर्थात् असत् वस्तु की जाती है, ऐसा किसीने देखाभी नहीं और विद्वानोंने असत् वस्तुभी की जाती है ऐसा नहीं माना है ।। १३९-१४० ।। यदि ईश्वर बिना उपकरणोंके जगत् उत्पन्न करता है, ऐसा कहोगे तो वह किसके लिये उत्पन्न करता है? यदि पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी इनकेद्वारा जगत् उत्पन्न करता है, ऐसा कहोगे तो उनका यदि अभाव होगा तो जगत् की उत्पत्ति वह कैसे करेगा ? क्या अभावरूप पृथिव्यादिकसे जगत् निर्माण कर सकता है ? नहीं । अभावसे जगत् उत्पन्न करना मिथ्या है। अर्थात् ईश्वरके मनमें जगत् उत्पन्न करनेकी इच्छा है और यदि पृथिव्यादिक नहीं है तो जगन्निर्माण शक्य नहीं । और पृथिव्यादि हैं तो इनसे भिन्न दूसरा जगत् कौनसा माना जाता है? इनका जो समूह सर्वत्र दिखता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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