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________________ -४. ९३ ) सिद्धान्तसारः ( ८३ ततोऽभावप्रमाणस्य प्रवृत्तिरनिवारिता । सर्वज्ञविषया चेति तदभावो विभाव्यते ॥ ८६ तदेतत्सर्वमिथ्यात्वमहारागहतात्मनाम् । वैपरीत्यं विभात्येव सर्वथा वेदवादिनाम् ॥ ८७ कश्चित्पुमानशेषज्ञः प्रमाणाबाधितत्वतः । न चासिद्ध मिदं तावत्कस्यचिद्वाधकात्ययात् ॥ ८८ प्रत्यक्षं बाधकं तस्य नैषा भाषापि युज्यते । तद्विषयं भवेदेतत्तस्य प्रत्युत साधकम् ॥ ८९ अतद्विषयतायां हि प्रत्यक्षस्य न जायते । सर्वसाधकत्वं वा बाधकत्वं कदाचन ॥ ९० नैवानुमानबाधापि सर्वज्ञप्रतिषेधिनी । सर्वदातीन्द्रियत्वेन तस्य तत्राप्रवर्तनात् ॥ ९१ साध्यसाधनयोस्तावत्क्वचिदेकत्र दर्शनात् । ततः साधनतः साध्यविज्ञानं जायते पुनः ॥ ९२ सर्वज्ञस्य तु चेल्लिङ्ग सर्वज्ञाभावसाधकम् । तद्विरुद्धं ततोऽन्यच्च कथं सर्वज्ञभाषितम् ॥९३ सर्वज्ञमें अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति अनिवार्य है । उसे कोई रोक नहीं सकता। इसलिये अभाव प्रमाणसे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध हुआ ॥ ८६ ॥ यह मीमांसकोंका सर्वज्ञाभावके विषयमें जो कहना है वह योग्य नहीं है । संपूर्ण मिथ्यात्वरूप महारोगसे जो घाते गये ऐसे वेदप्रामाण्य माननेवाले मीमांसकोंका यह कहना सर्वथा विपरीत है ।। ८७ ॥ ( जैन सर्वज्ञ सिद्ध करते हैं। )- कोई पुरुष सर्वज्ञ है, क्योंकि किसीभी प्रमाणसे उसका सर्वज्ञपना बाधित नहीं होता। यहां प्रमाणाबाधितत्त्व' हेतु जो जैनोंने सर्वज्ञत्त्वकी सिद्धिमें दिया है वह असिद्ध नहीं है, क्योंकि इस हेतुमें किसीभी बाधकका संभव नहीं है । सब बाधकोंका अभाव हो गया है ।। ८८ ॥ प्रत्यक्ष प्रमाण उस सर्वज्ञका बाधक है, यह भाषाभी योग्य नहीं । यदि यह प्रमाण सर्वज्ञको विषय करनेवाला है, तो वह उसका साधकही होगा । उससे सर्वज्ञका सद्भावही सिद्ध होगा । अभाव सिद्ध नहीं होगा। और यदि वह सर्वज्ञको विषय नहीं करता है, तो वह सर्वज्ञसाधकभी नहीं है और बाधकभी नहीं है। जो जिसको जानता है, विषय करता है उससे उसकी ती है। परंत जो जिसको नहीं जानता है वह उसका निषेध करने में अधिकारी नहीं है। जैसे कर्णन्द्रिय रूपको जानती नहीं अर्थात वह रूपकी न साधकही है और न बाधकही है, वैसे सर्वज्ञको अविषय करनेवाला प्रत्यक्ष सर्वज्ञका न साधक है और न बाधक है ।। ८९-९० ॥ अनुमान-बाधा सर्वज्ञका प्रतिषेध करेगी ऐसाभी नहीं कहना चाहिये । क्योंकि सर्वज्ञ सदा अतीन्द्रिय होनेसे बाधक अनुमानकी वहां प्रवृत्ति नहीं होती। जो बाधक अनुमान है उसमें साध्य और साधनकी सिद्धि नहीं है । अर्थात् सर्वज्ञनिषेधक धर्मी और साधन कोई नहीं है । वे यदि होते तो पक्षमें उनका दर्शन होता । साधनसे जो साध्य ज्ञान होता है उसे अनुमान प्रमाण कहते हैं । सर्वज्ञका कोई लिंग-हेतु है, और वह सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करता है, ऐसा कहोगे तो वह कहना विरुद्ध होगा। क्योंकि सर्वज्ञका लिंग सर्वज्ञके अभावके विरुद्ध सर्वज्ञका सद्भाव सिद्ध करता है। यदि सर्वज्ञसे अन्यवचन होगा तो वह सर्वज्ञभाषित कैसा माना जायगा? ॥९१-९३॥ १ आ. सार्वज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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