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________________ सिद्धान्तसारः ( ४. ९४ आगमोऽपि हि नो जातु कृतकश्चेतरोऽपि वा । तस्याबाधां करोत्येष प्रामाण्या भावतस्ततः ॥ ९४ गुणवद्वक्तृत्वेन तत्प्रामाण्यमुदीरितम् । तस्याभावेऽस्य दुष्टत्वमप्रामाण्यनिषेधनात् ॥ ९५ धर्माद्यतीन्द्रियार्थस्यानन्यथार्थस्य दर्शनात् । अर्थापत्तिस्तु सर्वज्ञसाधिका नैव बाधिका ॥ ९६ अभावोऽपि न सर्वज्ञाभावसिद्धिविधायकः । यतोऽन्यत्रान्यदा तस्य ग्रहणे सति जायते ॥ ९७ अत्राधुना न सर्वज्ञ इत्यप्यामोहजल्पितम् । सिद्धसाधनदोषत्वा दुष्ट मिष्ट विघातकृत् ॥ ९८ देशान्तरकालान्तरद्रव्यान्तरनिषेधकम् ' । अखिलज्ञमृते तस्य क्रियते केन कथ्यताम् ॥ ९९ ८४) आगम प्रमाणभी सर्वज्ञका बाधक नहीं है । कृतक आगम और अकृतक आगम ऐसे आगमके दो भेद होते हैं । कृतक - पौरुषेय आगम; अकृतक - अपौरुषेय - जिसका कर्ता कोई नहीं है ऐसा आगम, ऐसे दोनों आगमसेभी सर्वज्ञ बाध्य नहीं है । क्योंकि उनमें स्वयं प्रामाण्यका अभाव है । जो आगम गुणवान् वक्तासे कहा गया है उसमें प्रामाण्य है अर्थात् गुणवान् वक्ता निर्दोष होने से उसके वचनोंमें प्रामाण्य होता है और ऐसा वक्ता जिस आगमका कर्ता है वह अप्रमाण नहीं हो सकता, अर्थात् ऐसे आगमसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है । यदि आगममें गुणवद्वक्तृत्वका अभाव होगा तो वह आगम दुष्ट होगा - सदोष होगा तथा सदोष आगमका अप्रामाण्य निषिद्ध नहीं किया जा सकता ।। ९४-९५ ॥ धर्म-अधर्म आदिक जो अतीन्द्रिय पदार्थ हैं उनका परिज्ञान सर्वज्ञके बिना नहीं होता अतः यह अर्थापत्ति सर्वज्ञकी साधक है, बाधक नहीं ॥ ९६ ॥ अभावप्रमाणभी सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करने में समर्थ नहीं । क्यों कि किसी पदार्थका किसी स्थलमें और किसी कालमें यदि ग्रहण होगा तो अन्यस्थलमें और अन्यकालमें उसका अभाव अभावप्रमाणसे कर सकते हैं । तात्पर्य - अभाव प्रमाण त्रिकालमें और त्रिलोकमें सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं कर सकता । वर्तमानकालमें सर्वज्ञ नहीं दिखता, अतः उसका अभाव कहना है, तो वह कथन मोहयुक्त है । वर्तमान में सर्वज्ञ है ऐसा कौन मानता है? वर्तमानकालमें सर्वज्ञका अभाव है ही । जो अभाव है ही, उसकी सिद्धि करनेका प्रयास करना सिद्धसाधन दोषसे दुष्ट होता है और यह दोष मीमांसकके 'सर्वथा सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करनेके इष्ट पक्षका' विघातक है ।। ९७-९८ ।। जो सर्वज्ञ है वही देशान्तर, कालान्तर, द्रव्यान्तरका निषेध करेगा अर्थात् जो सर्व देशोंको सर्व भूतभविष्यद्वर्तमान कालोंको और संपूर्ण द्रव्योंको जानता है, वही 'सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा कह सकेगा । अर्थात् सब जानकर जो सर्वज्ञ नहीं है ऐसा कहता है वही सर्वज्ञ होगा । किसी वस्तुको जानकर कोई उस वस्तुका निषेध या विधि कर सकता है । न जानते वस्तुका निषेध करनेवाले पुरुषको प्रमाण कौन मानेगा ? ।। ९९ ।। हुए किसी १ आ. निषेधनम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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