SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धान्तसारः (४. ८० स्वभावकार्यरूपं वा न तल्लिङ्गं विलोक्यते । ततस्तस्य कुतः सिद्धिरनुमानुपपत्तितः ॥ ८० आगमादपि नो सिद्धिर्जायते सर्ववेदिनः । स च नित्यो ह्यनित्यो वा तत्स्वभाव विभावयेत्॥८१ नानित्योऽनादिरूपत्वादर्थवादप्ररूपणात् । आदिमत्पुरुषेणास्य वाचकत्वविरोधतः ॥ ८२ तदुक्तानुक्तभेदाभ्यामनित्यो नास्य साधकः । अन्योन्याश्रयतस्तस्य प्रामाण्याभावतस्ततः ॥ ८३ नैवार्थापत्तिरप्यस्य सर्वज्ञस्यावबोधिका । अनन्यथाभवस्येह सर्वार्थस्याप्यभावतः ॥ ८४ धर्मादेरुपदेशस्य मिथ्यात्वेनापि दर्शनात् । सर्वत्र व्यभिचारित्वात्कथं तस्मात्तदन्वयः ॥ ८५ स्वभाव अथवा सर्वज्ञका कोई कार्य लिंग होकर उससे लिंगिरूप सर्वज्ञ-यदि जाना जाता, तो अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती परंतु ऐसा कोई लिंगभी नहीं है, जो सर्वज्ञको सिद्ध करेगा । अतः उसकी कहांसे सिद्धि होगी ? ।। ७९-८० ॥ सर्वज्ञकी सिद्धि आगमसेभी नहीं होती। आगमके नित्य अनित्य दो भेद हैं। नित्यआगम सर्वज्ञके स्वभावको जानता है अथवा अनित्य आगम उसके स्वभावको जानता है ? नित्य आगम सर्वज्ञको विषय नहीं करता ; क्योंकि वह आगम अनादि-स्वरूपका है, तथा वह अर्थवादका निरूपण करता है, यज्ञकी स्तुति करता है । यज्ञ सर्वज्ञ शब्दसे वाच्य होता है, तथा यज्ञकी महिमा गानेके लिये वह नित्य आगम है । सर्वज्ञ आदिमान् पुरुष है और वेद अनादि है। अनादि वेदसे आदिमान् सर्वज्ञ वाच्य कैसे होगा ? ॥ ८१-८२ ।। अनित्य-आगम सर्वज्ञसाधक माननेपर उसके दो भेद होते हैं। एक सर्वज्ञ-प्रणीत अनित्य-आगम और एक असर्वज्ञ-प्रणीत अनित्य-आगम । प्रथम पक्षमें अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न होता है। प्रथम सर्वज्ञसिद्धि होनेपर आगमका सर्वज्ञप्रणीतत्व सिद्ध होगा। और उसकी सिद्धि होनेपर उस आगमकी प्रामाण्य सिद्धि होगी, प्रामाण्यसिद्धि होनेपर उस आगमसे सर्वज्ञसिद्धि होगी। असर्वज्ञप्रणीत आगमसे सर्वज्ञसिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि असर्वज्ञप्रणीत आगमको प्रमाणता आ नहीं सकती। अप्रमाणभूत आगम सर्वज्ञको कैसे सिद्ध कर सकेगा? ॥ ८३ ॥ अर्थापत्ति नामक प्रमाणसे सर्वज्ञकी सिद्धि होगी, ऐसाभी आप नहीं कह सकते। क्योंकि सर्वज्ञके बिना नहीं होनेवाले संपूर्ण पदार्थोंका अभाव है। ऐसा कोईभी पदार्थ नहीं है, कि जिसके होनेपर सर्वज्ञकी सिद्धि हो सकेगी। कदाचित् जैन यहां कहेंगे कि सर्वज्ञका धर्मादिका उपदेश अबभी विद्यमान है और उससे सर्वज्ञ सिद्ध हो सकता है। परंतु वह उपदेश सच्चा है, ऐसा जैन नहीं समझे; क्योंकि मिथ्या उपदेशभी देखा जाता है। इसवास्ते मिथ्या उपदेशसे सर्वज्ञत्वका व्यभिचार होनेसे अर्थात् असर्वज्ञमें मिथ्या उपदेशके होनेसे सर्वज्ञके साथ उपदेशका संबंध नहीं रहता । अतः उपदेशभी सर्वज्ञसाधक नहीं है । ८४-८५ ॥ १ आ. अनुमानानुत्पत्तितः २ आ. तत्सद्भावं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy