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________________ -४. ७९) सिद्धान्तसारः (८१ नित्यानित्यमतस्तत्त्वं निरपेक्षं परस्परम् । येषां मिथ्यादृशस्तेऽपि सर्वे नयविधाततः ॥ ७४ तं सर्वज्ञमृते देवं वीतरागं जिनेश्वरम् । मिथ्यात्वमिति जल्पन्ति सम्यग्ज्ञानातिगाः परे॥७५ वदन्त्यन्ये न सर्वज्ञो वीतरागोऽस्ति कश्चन । प्रमाणपञ्चकाभावादभावेन विभावितः ॥७६ तथा ह्यध्यक्षतः सिद्धिः सर्वज्ञे नोपजायते । रूपादिनियतानेकविषयत्वेन तस्य च ॥ ७७ संबद्धवर्तमानत्वपरत्वान्नास्य साधकम् । तत्प्रत्यक्षमसंबद्धवर्तमानत्वतः सदा ॥ ७८ नैवानुमानतः सिद्धिः सर्वविद्विषया क्वचित् । यल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रजायते ॥ ७९ सर्वथा नित्यवादी और सर्वथा अनित्यवादी दोनोंही मिथ्यादृष्टी हैं परंतु जो पदार्थों को नित्यानित्य मानते हैं वे तो मिथ्यादृष्टि नहीं है ऐसा कहना योग्य नहीं । निरपेक्ष नित्यानित्यवाद भी सर्वथा नित्यवाद और सर्वथा अनित्यवादके समान मिथ्याही है, क्योंकि अपेक्षाके बिना नित्यानित्य वस्तु माननेसे सर्व नयोंका घात होता है ।। ७४ ॥ जो सम्यग्ज्ञानसे रहित हैं ऐसे लोग रागद्वेषरहित सर्वज्ञ जिनेश्वरको न मानकर अर्थात् उनके मतका स्वीकार न करके उपर्युक्त प्रकारसे मिथ्यात्वकी कल्पना करते हैं ॥ ७५ ॥ (सर्वज्ञके विषयमें मीमांसकोंका पूर्वपक्ष ।)- अन्य-मीमांसक वीतराग और सर्वज्ञ कोई है ही नहीं ' ऐसा कहते हैं " प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण, प्रत्यभिज्ञा प्रमाण, आगम प्रमाण और अर्थापत्ति प्रमाण इन पांचों प्रमाणोंसेभी सर्वज्ञ सिद्ध नही होता" अतः अभाव प्रमाणसे उसका अभाव सिद्ध होता है, यह मीमांसकोंका मत है। वे क्रमसे पांचों प्रमाणोंके द्वारा सर्वज्ञका अभाव सिद्ध करते हैं ।। ७६ ॥ प्रत्यक्षप्रमाणसे सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं होती, अर्थात् प्रत्यक्ष प्रमाण सर्वज्ञकी सिद्धि नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण रूप, रस, गंध और स्पर्श इन नियत विषयोंको जानता है। अर्थात् रूपरसादिकके समान सर्वज्ञ इंद्रियप्रत्यक्षसे जानने योग्य वस्तु नहीं है। अतः अध्यक्ष प्रमाण सर्वज्ञकी सिद्धि करने में असमर्थ है। प्रत्यक्ष प्रमाण सम्बद्ध और वर्तमानकालीन रूपादि विषयोंको जानता है अर्थात् वर्तमान घटके रूपका चक्षुसे सम्बन्ध होता है, तब चक्षुःप्रत्यक्ष यह काला घट है, यह पीला घट है, ऐसा जानता है। परंतु सर्वज्ञ असंबद्ध है और वर्तमानकालमें विद्यमान नहीं है इसलिये प्रत्यक्षका विषय नहीं होता है ॥ ७७-७८ ॥ अनुमानके द्वारा सर्वज्ञ विषयकी सिद्धि होगी ऐसाभी नहीं कह सकते हैं। "लिंगज्ञानसे लिंगीका ज्ञान होना अनुमान है। धूमरूप लिंग देखकर पर्वतपर अग्निरूप लिंगीको सिद्ध करना अनुमान है। ऐसा कोई अनुमान-ज्ञानभी सर्वज्ञकी सिद्धि में उपयुक्त नहीं है। सर्वज्ञका कोई १ आ. वर्तमानस्य सर्वदा २ आ. यल्लिङ्गिमिणि ज्ञानं S.S.11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001846
Book TitleSiddhantasarasangrah
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorJindas Parshwanath Phadkule
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1972
Total Pages324
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size23 MB
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