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________________ पद्य २६-२८ ] अजीवाधिकार ५३ विविध कर्म वर्गणाओंकी निष्पत्ति बिना दूसरेके किये कैसे होती है ? यह एक प्रश्न पैदा होता है । इसका उत्तर यहाँ विविध-पुद्गल-स्कन्धों को स्वतः उत्पत्तिके दृष्टान्त द्वारा दिया गया है, जिसका यह आशय है कि जिस प्रकार आकाशमें अपने योग्य सूर्य-चन्द्रमाकी प्रभाको पाकर बादल, सन्ध्याराग इन्द्रधनुष, परिमण्डलादि अनेक प्रकारके पुद्गल -स्कन्ध बिना दूसरे किये स्वयं बनते-बिगड़ते देखे जाते हैं, उसी प्रकार अपने योग्य मिथ्यात्व - रागादिरूप जीव - परिणामोंको पाकर ज्ञानावरण-दर्शनावरण आदि बहुत प्रकारके कर्म बिना किसी दूसरे कर्ता की अपेक्षाके स्वयं उत्पन्न होते हैं और समयादिकको पाकर स्वयं ही विघटित हो जाते हैं । जीव कभी कर्मरूप और कर्म जीवरूप नहीं होते कर्मभावं प्रपद्यन्ते न कदाचन चेतनाः । कर्म चैतन्यभावं वा स्वस्वभावव्यवस्थितेः ||२७|| 'अपने-अपने स्वभावमें (सदा ) व्यवस्थित रहनेके कारण चेतन ( नीव ) कभी कर्मरूप नहीं होते और न कर्म कभी चेतनरूप होते हैं ।' व्याख्या - जीव और पौद्गलिक कर्मोंका एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध होनेपर भी जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं होते; क्योंकि दोनों सदा अपने-अपने स्वभावमें स्थित रहते हैं – स्वभावका त्याग कोई भी द्रव्य कभी नहीं कर सकता । इसीसे जैनागममें आत्माको स्वभाव से निजभावका कर्ता कहा गया है- पुद्गलकर्मादिकका कर्ता नहीं बतलाया । इसी तरह कर्मको भी स्वभावसे अपने भावका कर्ता कहा गया है— जीवके स्वभावका कर्ता नहीं; जैसा कि पंचास्तिकायकी निम्न गाथाओंसे जाना जाता है: कुवं सगं सहावं अत्ता कत्ता सगस्स भावस्स । ण हि पोग्गलकम्माणं इदि जिणवयणं मुणेयव्वं ॥ ६१ ॥ कम्मं पि समं कुव्वदि सेण सहावेण सम्ममप्पाणं । जीवो विय तारिसओ कम्मसहावेण भावेण ॥ ६२ ॥ | Jain Education International जीवके उपादानभावसे कर्मोंके करनेपर आपत्ति जीवः करोति कर्माणि यद्युपादानभावतः । चेतनत्वं तदा नूनं कर्मणो वार्यते कथम् ||२८|| 'यदि जीव निश्चय ही उपादान भावसे कर्मों का कर्ता है तब कर्मके चेतनपनेका निषेध कैसे किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता; क्योंकि उपादान कारण ही कार्यरूपमें परिणत होता है । जीवके चेतन होनेपर उसके उपादानसे निर्मित हुआ कर्म भी चेतन ठहरता है ।' व्याख्या - पिछले पद्य में जीव तथा पुद्गल-कर्मकी जिस स्वभाव व्यवस्थितिका उल्लेख किया गया है उसे न मानकर यदि यह कहा जाय कि जीव अपने उपादान - भावसे कर्मोंका कर्ता है - निमित्त रूपसे नहीं - तो फिर कर्मोंके चेतनत्वका निषेध नहीं किया जा सकता; क्योंकि उपादान - कारण जब चेतन होगा तो उसके कार्यको भी चेतन मानना पड़ेगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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