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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार २
कर्मके उपादानभावसे जीवके करनेपर आपत्ति
यद्यपादानभावेन विधत्ते कर्म चेतनम् ।
अचेतनत्वमेतस्य तदा केन निषिध्यते ॥२६॥ 'यदि कर्म अपने उपादानभावसे चेतन (जीव ) का निर्माण करता है तो इस-चेतनरूप जीवके अचेतनपने ( जड़पने) के प्रसंगका निषेध कैसे किया जा सकता है ?-नहीं किया जा सकता। कर्मका उपादान अचेतन होनेसे तनिर्मित जीवात्मा भी तब चेतना-रहित जड़ ठहरता है।'
व्याख्या-यदि उस स्वभाव व्यवस्थितिको न मानकर यह कहा जाय कि कर्म अपने उपादानसे जीवके भावोंका कर्ता है-निमित्तरूपसे नहीं तो फिर जीवके अचेतनत्वका निषेध नहीं किया जा सकता है ? क्योंकि उपादान जब अचेतन होगा तो उसके कार्यको भी अचेतन मानना पड़ेगा।
उक्त दोनों मान्यताओंपर अनिवार्य दोषापत्ति एवं संपद्यते दोषः सर्वथापि दुरुत्तरः ।
चेतनाचेतनद्रव्य विशेषाभावलक्षणः ॥३०॥ 'इस प्रकार (चेतनको अचेतनका और अचेतनको चेतनका उपादान-कारण माननेसे) चेतन और अचेतन द्रव्यमें कोई भेद न रहनेरूप वह दोष भी उपस्थित होता है जो सर्वथा दुरुत्तर है-किसी तरह भी टाला नहीं जा सकता और उससे अनिष्टके घटित होनेका प्रसंग आता है।'
व्याख्या-चेतनात्मक जीवको अपने उपादानसे कर्मोंका और अचेतनात्मक कर्मको अपने उपादानसे जीवका कर्ता माननेपर जिन दोषोंकी आपत्ति पिछले दो पद्योंमें दर्शायी गयी है उनसे फिर एक बड़ा दोष और उत्पन्न होता है जो किसी तरह भी टाला नहीं जा सकता और उसे इस पद्यमें बतलाया है। वह महान् दोष है चेतन-अचेतन-द्रव्य-विशेषका अभाव-अर्थात् कोई द्रव्य चेतन और कोई अचेतन, यह भेद तब किसी तरह भी नहीं बन सकेगा। सबको चेतन और सबको अचेतन भी नहीं कह सकते; क्योंकि कोई भी विधि या निषेध प्रतिपक्षीके बिना नहीं होता । विधिका निषेधके साथ निषेधका विधिके साथ अविनाभाव-सम्बन्ध है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्योंसे जाना जाता है :
अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाब्येकमणि। विशेषणत्वात्साधम्यं यथा भेदविवक्षया ॥१७॥ नास्तित्वप्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकमणि । विशेषणत्वाद्वैधयं यथाभेदविवक्षया ॥१८॥
- -आप्तमीमांसा
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