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पद्य २९-३२]
अजीवाधिकार पुद्गलोंके कर्मरूप और जीवोंके सरागरूप परिणामके हेतु 'सरागं जीवमाश्रित्य कर्मत्वं यान्ति पुद्गलाः ।
कर्माण्याश्रित्य जीवोऽपि सरागत्वं प्रपद्यते ॥३१॥ 'सरागी जीवका आश्रय-निमित्त पाकर पुद्गल कर्मभावको प्राप्त होते हैं। और कर्मोका आश्रय-निमित्त पाकर जीव भी सराग-भावको प्राप्त होता है।'
व्याख्या-इस पद्यमें जीव और पुद्गलकी एक-दूसरेके निमित्तसे परिणमनकी स्थितिको स्पष्ट किया गया है और वह यह है कि जीवके रागादि रूप परिणमनका निमित्त पाकर पुद्गल ज्ञानावरणादि-कर्मरूप परिणत होते हैं और अपने-अपने कर्मोंके उदयका निमित्त पाकर जीव राग-द्वेषादिरूप परिणत होते हैं । परन्तु सभी जीवोंका कर्मोंके उदयवश रागद्वेषादिरूप परिणत होना लाजमी (अवश्यंभावी ) नहीं है; कुछ जीव ऐसे भी होते हैं जो कर्मोंका उदय आनेपर समताभाव धारण करते हैं-कर्मजनित पदार्थों में राग-द्वेषादिरूप परिणत नहीं होते अथवा मोहनीय-कर्मका अभाव हो जानेपर राग-द्वेषादिरूप परिणत होनेकी जिनमें योग्यता ही नहीं रहती-ऐसे जीवोंके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप परिणत नहीं होते अथवा यों कहिए कि उन जीवोंके कर्मोंका उदय आनेपर भी तथा कुछ औदयिक भावोंके होनेपर भी नये कर्मोंका बन्ध नहीं होता । यदि ऐसा नहीं माना जाय तो बन्धकी परम्परा कभी समाप्त नहीं हो सकती। और न कभी मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि मोहनीय कर्मका अभाव हो जानेपर भी अर्हन्तों-भगवन्तोंके बिना किसी इच्छा तथा प्रयत्नके तथाविध योग्यताके सद्भावसे यथासमय उठना-बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश देना-जैसी क्रियाएँ तो नियमितरूप स्वभावसे उसी प्रकार होती हैं जिस प्रकार कि मेघाकार-परिणत पुद्गलोंका चलना, ठहरना, गर्जना और जल बरसाना आदि क्रियाएँ बिना किसी पुरुषप्रयत्नके स्वतः होती देखनेमें आती हैं। परन्तु उनसे मोहके उदय-पूर्वक न होनेके कारण क्रिया-फलके रूपमें नये कर्मका कोई बन्धन नहीं होता । अरहन्तोंकी ये क्रियाएँ औदयिकी हैं; क्योंकि अर्हन्त-पद महापुण्यकल्पवृक्षसम 'तीर्थकर प्रकृति' नामक नामकर्मके उदयसे होता है । साथ ही मोहनीय कर्मका अभाव हो जानेसे ये क्रियाएँ क्षायिकी भी हैं और इसलिए शुद्धचेतनामें कोई विकार उत्पन्न नहीं करतीं; जैसा कि प्रवचनसारकी निम्न गाथाओंसे प्रकट है:
ठाण-णिसेज्ज-विहारा धम्मुवदेसो वि णियदयो तेसि । अरहंताणं काले मायाचारोव्व इत्थीणं ॥४४॥ पुण्णफला अरहंता तैसि किरिया पुणोवि ओदइआ। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइगि त्ति मदा ॥४५॥
कर्मकृतभावका कर्तृत्व और जीवका अकर्तृत्व 'कर्म चेत्कुरुते भावो जीवः कर्ता तदा कथम् ।
न किंचित् कुरुते जीवो हित्वा भावं निजं परम् ॥३२॥ १. जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥-समयसार। २. भावो जदि कम्मकदो अत्ता कम्मस्स होदि किध कत्ता। ण कुणदि अत्ता किंचि वि मुत्ता अण्णं सगं भावं ॥५९॥-पञ्चास्ति।
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