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________________ योगसार-प्राभूत [ अधिकार २ 'कल्मषके उदयसे-मिथ्यात्वादि कर्मोके उदय-वश-जीवका जो भाव उत्पन्न होता है उसी भावका वह जीव कर्ता होता है द्रव्यकर्मका कर्ता कभी नहीं होता है।' ___ व्याख्या-'कल्मष' शब्द कर्ममलका वाचक है। यद्यपि उसमें सारा ही कर्ममल आ जाता है फिर भी जिस कर्ममलके उदयसे जीवके औदयिक भाव उत्पन्न होते हैं वही कर्ममल यहाँपर विवक्षित जान पड़ता है। विवक्षित-कर्ममलके उदयका निमित्त पाकर जीवका जो भाव उत्पन्न होता है उस अपने भावका कर्ता वह जीव होता है, न कि उस पुद्गलद्रव्यके कर्मरूप परिणमनका कर्ता, जो जीवके परिणामका निमित्त पाकर स्वतः कर्मरूप परिणत होता है। जैसा कि श्री अमृतचन्द्राचार्य के निम्न वाक्यसे भी प्रकट है: जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये।। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ ( पुरुषार्थसि० ) ... इस वाक्यमें प्रयुक्त हुआ पुद्गलोंका 'अन्य' (दूसरे) विशेषण-पद बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और इस बातको स्पष्ट सूचित करता है कि जिस जीवकृत-परिणामका इस पद्यमें उल्लेख है वह संसारी जीवका विभाव-परिणाम है और विभाव-परिणाम जीवमें बिना पुद्गलके सम्पर्कके नहीं हुआ करता। अतः जिन पुद्गलोंके सम्बन्धको पाकर जीवका विभावपरिणाम बना उन पुद्गलोंसे भिन्न जो दूसरे पुद्गल हैं और वहीं-परिणामके पास हीमौजूद हैं वे उस परिणामका निमित्त पाकर स्वयमेव कर्मभावको प्राप्त हो जाते हैं-द्रव्यकर्म बन जाते हैं। नतीजा यह निकला कि पहलेसे जीवके परिणाममें पुद्गलके सम्पर्क बिना नया कोई पुद्गल कर्मरूप नहीं परिणमता। और इस तरह पूर्वबद्ध कर्म के उदय-निमित्तको पाकर जीवका परिणाम और जीवके परिणाम-निमित्तको पाकर नये पुद्गलोंका कर्मरूपसे बन्धनको प्राप्त होना, यह सिलसिला अनादिकालसे चला आता है। प्रत्येक द्रव्यका परिणाम अपनेमें ही होता है, और इसलिए वही अपने उस परिणामका कर्ता होता है, दूसरे द्रव्यके परिणामका दूसरा कोई द्रव्य कर्ता नहीं होता-निमित्तकारण होना दूसरी बात है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके कार्यका निमित्तकारण तो होता है पर उपादानकारण नहीं। उपादानकारण उसे कहते हैं जो कारण ही कार्यरूप परिणत होवे। मिट्टीका घड़ा बनने में मिट्टी ही घटरूप परिणत होती है कुम्भकारादि नहीं, इसलिए मिट्टी उपादानकारण और कुम्भकारादि उसके निमित्तकारण कहे जाते हैं। कर्मोकी विविधरूपसे उत्पत्ति कैसे होती है 'विविधाः पुद्गलाः स्कन्धाः संपद्यन्ते यथा स्वयम् । कर्मणामपि निष्पत्तिरपरैरकृता तथा ॥२६॥ "जिस प्रकार विविध पुद्गल स्वयं स्कन्ध बन जाते हैं उसी प्रकार (पुद्गलात्मक ) कर्मोंकी निष्पत्ति (निर्मिति ) भी दूसरोंके द्वारा नहीं होती-स्वतः होती है।' व्याख्या-पिछले पद्यमें यह बतलाया गया है कि जीव अपने भावोंका कर्ता है, द्रव्यकर्मका कर्ता कदाचित् नहीं है; तब द्रव्यकर्मोंका वर्गीकरण अथवा ज्ञानावरणादिके रूपमें १. जह पुग्गलदव्वाणं बहुप्पयारेहिं खंधणिवत्ती। अकदा परेहिं दिट्ठा तह कम्माणं वियाणाहि ॥६६॥ - पञ्चास्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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