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पद्य ३-४ ]
अजीवाधिकार
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परन्तु कालान्तरमें स्थूल परिणमनके अवसरपर इन्द्रियगोचर होती हैं अतः इन्द्रियगोचर होनेकी योग्यताके सद्भावके कारण उन्हें इन्द्रियगोचर न होनेके अवसरपर भी मूर्तिक ही समझना चाहिए । परमाणु भी अपने शुद्धरूपमें अतिसूक्ष्मता के कारण इन्द्रियगोचर नहीं होते; परन्तु स्कन्धरूपमें परिणत होकर जब स्थूलरूप धारण करते हैं तब इन्द्रियोंके ग्रहणमें आते हैं, इसलिए वे भी मूर्तिक हैं । इसी से 'मूर्तिमन्तोऽत्र पुद्गलाः' इस सूत्र के द्वारा पुद्गल- मात्रको 'मूर्तिक' कहा गया है । तत्त्वार्थसूत्रमें भी 'रूपिणः पुद्गलाः' इस सूत्र के द्वारा उन्हें रूपी - मूर्तिक निर्दिष्ट किया गया है, चाहे वे सूक्ष्म स्थूल किसी भी अवस्थामें क्यों न हों ।
यहाँ एक बात और भी जान लेनेकी है और वह यह कि मूर्तिकमें रूप, गन्ध, रस, स्पर्श की व्यवस्थाका जो उल्लेख किया गया है, जो क्रमशः चक्षु-प्राण- रसना स्पर्शन इन चार इन्द्रियोंके विषय हैं; परन्तु पाँचवीं श्रोत्र इन्द्रियका विषय जो शब्द है उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया, इसका कारण यह है कि शब्द पुद्गलका कोई गुण स्वभाव नहीं है, जो स्थायी रूपसे उसमें पाया जाय । चार इन्द्रियोंके विषय स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण के रूप में हैं वे ही शब्द-रूप परिणत होकर श्रोत्र - इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जाते हैं । इसीसे शुद्ध पुद्गल - रूपमें जो जो परमाणु है उसे 'अशब्द' - शब्दरहित - कहा गया है - एक प्रदेशी होने के कारण उसमें शब्द-पर्याय रूप परिणतिवृत्तिका अभाव है; परन्तु शब्द में स्कन्धरूप परिणति शक्तिका सद्भाव होनेसे वह शब्दका कारण होता है ।
जीवसहित पाँचों अजीवोंकी द्रव्य-संज्ञा
जीवेन सह पञ्चापि द्रव्याण्येते निवेदिताः । गुण- पर्ययवद्रव्यमिति लक्षण - योगतः || ४ ||
'ये पाँच अजीव जीवसहित 'द्रव्य' कहे गये हैं; क्योंकि ये 'गुणपर्ययवद्रव्यं' इस द्रव्यलक्षणको लिये हुए हैं।'
व्याख्या - पूर्वोक्त पाँचों अजीव जीव सहित 'द्रव्य' कहे जाते हैं; और इसलिए द्रव्योंकी मूलसंख्या छह है: छह प्रकारके द्रव्य हैं, जिनकी यह छहकी संख्या कभी घट-बढ़ नहीं होती। ये छहों गुण-पर्यायवान हैं, इसीसे 'गुण- पर्यंय-वद् द्रव्यम्' इस सूत्र के अनुसार इन्हें द्रव्य कहा जाता है
श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पंचास्तिकाय में द्रव्यका निरूपण तीन प्रकारसे किया है - एक सल्लाक्षणिक, दूसरा उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यसे युक्त और तीसरा गुण-पर्यायाश्रय (गुण- पर्यायों का आधारभूत); जैसा कि उसकी निम्न गाथासे जाना जाता है :
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दव्वं सल्लवखणियं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । पज्जायं वाजं तं भण्णंति सव्वण्ह ॥ १०॥
इनमें से तीसरा लक्षण तत्त्वार्थसूत्र के 'गुण- पर्ययवद्-द्रव्यं' सूत्र के साथ तथा पहला लक्षण 'सद्द्रव्यलक्षणं' सूत्रके साथ एकता रखता है और दूसरे लक्षण के लिए तत्त्वार्थ सूत्र में
१. श्रोत्रेन्द्रियेण तु त एव तद्विषयहेतुभूतशब्दाकारपरिणता गृह्यन्ते । - पञ्चास्ति० टीका, अमृतचन्द्राचार्य । २. परमाणुः शब्दस्कन्ध- परिणति शक्ति-स्वभावात् शब्दकारणं एकप्रदेशत्वेन शब्दपरिणतिवृत्त्यभावादशब्दः । —अमृतचन्द्राचार्य, पञ्चास्ति० ८१ टीका । ३. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ५- १ । द्रव्याणि ५-२, जीवाश्च ५-३, कालश्च ५-३९ । त० सूत्र ।
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