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________________ ४० योगसार-प्राभृत [अधिकार २ 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' इस सूत्रकी सृष्टि की गयी है, जो कि सत्का लक्षण है। सत् द्रव्यका लक्षण होनेसे सत्का जो लक्षण वह भो द्रव्यका लक्षण हो जाता है। इन तीनों लक्षणों में सामान्यतः भेदका कुछ दर्शन होते हुए भी विशेषतः कोई भेद नहीं है-तीनों एक ही आशयके द्योतक हैं, यह वात ग्रन्थके अगले पद्योंसे स्पष्ट हो जाती है। द्रव्यका व्युत्पत्तिपरक लक्षण और सदा सत्तामय स्वरूप द्यते गुणपर्यायैर्यद्यद् द्रवति तानथ । तद् द्रव्यं भण्यते षोढा सत्तामयमनश्वरम् ॥५॥ 'जो गुण-पर्यायोंके द्वारा द्रवित होता है अथवा उन गुण-पर्यायोंको द्रवित करता है वह 'द्रव्य' कहा जाता है ( यह द्रव्यका नियुक्ति-परक लक्षण है)। वह द्रव्य (उक्त जीवादि) छह भेदरूप है, सत्तामय है-उत्पाद व्यय ध्रौव्यसे युक्त है--और अविनश्वर है-कभी नष्ट न होनेवाला है।' व्याख्या-इस पद्यमें 'द्रव्य' शब्दकी व्याकरण-सम्मत नियुक्ति-द्वारा द्रव्यके पूर्व पद्य वर्णित लक्षणका स्पष्टीकरण किया गया है : लिखा है कि जो गुण-पर्यायोंके द्वारा द्रवित होता है अथवा गुण-पर्यायोंको द्रवित करता है-प्राप्त होता है-उसे 'द्रव्य' कहा जाता है और वह छह भेदरूप है। यह छह भेद रूप द्रव्य सत्तामय है, इसीसे 'सद् द्रव्यलक्षणं' इस सूत्रके अनुसार द्रव्यका लक्षण सत् भी है और इस सत् तथा सत् लक्षणके कारण द्रव्यको 'अनश्वर' कभी नाश न होनेवाला-कहा जाता है। सर्वपदार्थगत-सत्ताका स्वरूप 'ध्रौव्योत्पादलयालीढा सत्ता सर्वपदार्थगा। एकशोऽनन्तपर्याया प्रतिपक्षसमन्विता ॥६॥ 'सत्ता ध्रौव्योत्पत्ति-व्ययात्मिका, एकसे लेकर सब पदार्थोंमें व्यापनेवाली, अनन्त-पर्यायोंकी धारिका और प्रतिपक्ष-समन्विता-असत्ता आदिके साथ विरोध न रखनेवाली होती है।' __व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस सत्ताका उल्लेख है उसका इस पद्यमें लक्षण दिया है और उसे ध्रौव्योत्पत्ति-व्ययात्मक बतलाया है तथा सर्व-पदार्थों में व्याप्त लिखा है-कोई भी पदार्थ चाहे वह उत्पादरूप, व्ययरूप या ध्रौव्यरूप हो सत्तासे शून्य नहीं है और उस सत्ताकी एकसे लेकर अनन्त पर्यायें हैं । सत्तारूप द्रव्यकी पर्यायोंका कभी कहीं अन्त नहीं आता, यदि अन्त आ जाय तो द्रव्य ही समाप्त हो जाय और दव्य सतरूप होनेसे और स रूप होनेसे उसका कभी नाश नहीं होता। उत्पाद-व्यय द्रव्यकी पर्यायों में हुआ करता है, द्रव्यमें अथवा ध्रौव्यरूप गुणोंमें नहीं। साथ ही सत्ताको 'प्रतिपक्षसमन्विता'-प्रतिपक्षके साथ विरोध न रखनेवाली-लिखा है । सत्ताका प्रतिपक्ष असत्ता है। सत्ता उत्पाद-व्ययकी दृष्टिसे दोनों रूप है अतः असत्ताके साथ उसका विरोध नहीं बनता। १. दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो ॥९॥ -पञ्चास्ति०। २. सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥८॥ -पञ्चास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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