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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार २ अजीवोंमें कौन अमूर्तिक, कौन मूर्तिक और मूर्तिलक्षण अमूर्ता निष्क्रियाः सर्वे मूर्तिमन्तोऽत्र पुद्गलाः ।
रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-व्यवस्था मूर्तिरुच्यते ॥३॥ 'इन अजीवोंमें पुद्गल मूर्तिक है। शेष सब अमूर्तिक-भूर्तिरहित-और निष्क्रिय-क्रिया हाल ह । रूप ( वणं ) रस-गन्ध-स्पर्शकी व्यवस्था (तरतीब Arrangement ) को 'मृति' कहते हैं।'
व्याख्या-इस पद्य में उक्त पाँचों अजीवोंकी स्थितिको और स्पष्ट किया गया है-लिखा है कि पुद्गलको छोड़कर शेष धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये चारों अजीव तत्त्व अमूर्तिक तथा निष्क्रिय हैं, केवल पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है और वह सक्रिय भी है। साथ ही मूर्तिका लक्षण भी दिया है : जो अपने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शकी व्यवस्थाको लिये हुए उसे 'मूर्ति' बतलाया है। वर्ण के पाँच-रक्त, पीत, कृष्ण, नील, शुक्ला; गन्धके दो-सुगन्ध, दुर्गन्ध; रसके पाँच-तिक्त ( चर्परा), कटु, अम्ल, मधुर, कला; और स्पर्श के आठ-कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्षये आठ मल भेद होते हैं। पुद्गलके इन बीस मूल गु मूर्ति में कोई एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध, उष्ण-रूक्ष इन चार युगलों में से कोई एक युगल रूप दो स्पर्श कमसे कम होने ही चाहिए। इसीसे पंचास्तिकायमें परमाणुका, जो सबसे सूक्ष्म पुद्गल है, स्वरूप बतलाते हुए 'एयरसवण्णगंधं दो फासं' (गाथा ८१ ) के द्वारा उसमें अनिवार्य-रूपसे पाँच गुणोंका होना बतलाया है। साथ ही पुद्गल द्रव्यको समझने, पहचाननेके लिए उसके कुछ भेदात्मक स्वरूपका भी निम्न गाथा-द्वारा संसूचन किया है :
उवभोज्जमिदिएहि य इंदिय काया मणो य कम्माणि ।
जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥८२॥ ( पञ्चा० ) इसमें बतलाया गया है कि जो स्पर्शनादि इन्द्रियों में से किसीके भी द्वारा भोगा जाता है-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्दरूप परिणत विषय-( स्पर्शन, रसन, आण, श्रोत्ररूप) पाँचों द्रव्येन्द्रियाँ, (औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस तथा कार्माण रूप पाँच प्रकारके) शरीर, द्रव्यमन, द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप कर्म और अन्य जो कोई भी मूर्तिक पदार्थ है वह सब पुद्गल है। अन्यमूर्तिक पदार्थों में उन सब पदार्थोंका समावेश है जो अमूर्तिकके लक्षणसे विपरीत हैं और नाना प्रकारकी पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कारणभूत जो असंख्यात संख्यात अणुओंके भेदसे अनन्तानन्त अगु-वर्गणाएँ द्वयणुक स्कन्ध पर्यन्त हैं और जो परमागुरूप हैं वे सब पुद्गल हैं।
मूर्तिक-अमूर्तिकका एक लक्षण यह भी किया जाता है कि जो विषय--पदार्थ जीवसे इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य हैं वे सब मूर्तिक और शेष सब अमूर्तिक हैं। इसमें 'ग्रहण किये जानेकी योग्यता के रूपमें जो बात कही गयी है वह खास तौरसे ध्यानमें रखनेके योग्य है; क्योंकि संख्यात-असंख्यात अणुओंके सूक्ष्म परिणमनको लिये हुए कितनी ही वस्तुएँ तथा पुद्गल वर्गणाएँ ऐसी होती हैं जो वर्तमान कालमें इन्द्रियगोचर नहीं हो पातीं;
१. आ निःक्रियाः। २. आगास-काल-जीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा । मुत्तं पुगगलदव्वं जीवो खल चेदगो तेनु ।। - पञ्चास्तिः ९७ । ३. जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवहिं हुति ते मुत्ता । सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादियदि ॥ - पञ्चास्ति. ९९ ।
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