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पद्य ४३-४६ ]
जीवाधिकार
आत्मोपासना से भिन्न शिव सुख प्राप्तिका कोई उपाय नहीं तस्मात्सेव्यः परिज्ञाय श्रद्धयात्मा मुमुक्षुभिः । लब्ध्युपायः परो नास्ति यस्मान्निर्वाणशर्मणः ॥४४॥
'अत: मुमुक्षुओंको उक्त प्रकारसे आत्माको जानकर श्रद्धाके साथ उसका सेवन करना चाहिए, क्योंकि मोक्षसुखकी प्राप्तिका दूसरा कोई उपाय नहीं है ।'
व्याख्या - जिस दर्शन -ज्ञान-चारित्रको मुक्तिमार्ग कहा गया है वह जब पूर्व-पद्यानुसार स्वात्मासे भिन्न कोई दूसरी वस्तु नहीं है तब मुमुक्षुओंको - मुक्तिप्राप्ति के इच्छुकोंको-स्वात्माको उसके शुद्ध स्वरूपमें भले प्रकार जानकर श्रद्धा के साथ उसका सेवन करना चाहिए; क्योंकि शुद्ध स्वात्माका सेवन छोड़कर मुक्तिसुखकी प्राप्तिका दूसरा कोई भी उपाय नहीं है। मुक्तिकी प्राप्ति मुक्तिसुखके लिए ही चाही जाती है, जो सर्व प्रकारसे निराकुल, अबाधित एवं परतन्त्रतासे रहित होता है । यदि वह सुख लक्ष्य में नहीं तो मुक्तिप्राप्तिकी इच्छाका कोई अर्थ ही नहीं । मात्मस्वरूपकी अनुभूतिका उपाय
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'निषिध्य स्वार्थतोऽचाणि विकल्पातीत -चेतसः ।
तद्रूपं स्पष्टमाभाति कृताभ्यासस्य तत्त्वतः ॥ ४५ ॥
'इन्द्रियोंको अपने विषयोंसे रोककर आत्मध्यानका अभ्यास करनेवाले निविकल्प-चित्त ध्याताको आत्माका वह रूप वस्तुतः स्पष्ट प्रतिभासित होता है-साक्षात् अनुभवमें आता है ।' व्याख्या- यहाँ आत्माके उस शुद्ध स्वरूपका अनुभव कैसे किया जाय इसके उपायकी वह सूचना और स्पष्ट रूपसे की गयी है जिसे आचार्य महोदय प्रन्थके ३३वें पद्य में बतला आये हैं और इसलिए उसे उक्त पद्यकी व्याख्यासे जानना चाहिए। इस पद्य में 'तद्रूपं स्पष्टमाभाति' इस वाक्यके द्वारा यह खास घोषणा की गयी है कि उक्त उपायसे अच्छे अभ्यासीको आमाका वह शुद्ध स्वरूप स्पष्ट-साक्षात् प्रतिभासित होता है— उसमें कुछ परोक्ष नहीं रहता, भले ही वह एक क्षणके लिए ही क्यों न हो ।
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आचार्य देवसेनने तो आराधनासार में इस विषयको और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'मन मन्दिरके उजाड़ होनेपर - उसमें किसी भी संकल्प-विकल्पका वास न रहनेपर — और समस्त इन्द्रियोंका व्यापार नष्ट हो जानेपर आत्माका स्वभाव अवश्य आविर्भूत होता है और उस स्वभाव के आविर्भूत होनेपर यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है :
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उव्वसिए मणगेहे णट्टे जिस्सेस- करण-वावारे । विस्फुरिए ससहावे अप्पा परमप्पओ हवदि ॥ ८५ ॥
विवक्षित केवलज्ञानसे भिन्न आत्माका कोई परमरूप नहीं
स्वसंविदितमत्यक्षमव्यभिचारि केवलम्
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नास्ति ज्ञानं परित्यज्य रूपं चेतयितुः परम् ||४६ ॥
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१. सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः ॥३०॥ -समाधितन्त्र । २. आ निषिध्यः, ब्या निषिव्यः । ३. आ स्वसंवेद्यतमत्यक्ष । ४. व्या नयतु ।
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