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योगसार-प्राभूत
[ अधिकार १
स्वामी समन्तभद्रके 'सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वराः विदुः इस वाक्यसे जाना जाता है । यह स्वभाव जब विभाग - परिणमनमें कारणभूत कर्ममलके दूर होनेसे निर्मलताको प्राप्त होता है तब आत्मा स्वयं रागसे विमुक्त हुआ मुक्तिमार्गरूप परिणत होता है ।'
मुक्तिका मार्ग या कारण आत्मासे भिन्न कोई पर-पदार्थ नहीं है । आत्माका स्वभाव यहाँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्र बतलाया है और इसीको 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यादि आगम - वाक्योंके द्वारा मोक्षमार्ग निर्दिष्ट किया गया है। इससे दोनों अभिन्न हैं, यह स्पष्ट हो जाता है । आत्मा अपनी मुक्ति स्वयं न करके कोई दूसरा उसे करने आयेगा, यह धारणा बिल्कुल गलत और भ्रान्त है । अतः मुमुक्षु आत्मा अपने बन्धनकी स्थितिको भली प्रकार जानकर उससे छूटनेका स्वयं उपाय करता है । यह छूटने का उपाय जिसे 'मोक्षमार्ग' कहते हैं, अपने आत्मस्वरूपमें स्थितिके सिवाय और कुछ नहीं है । जिस समय यह स्वरूपस्थिति पूर्णताको प्राप्त होती है उसके उत्तरक्षणमें ही मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है ।
जिस कर्ममलके निमित्तसे आत्माका अपनी वैभाविकी शक्तिके कारण विभाव-परिणमन होता है वह मुख्यतः द्रव्य और भाव मलके भेदसे दो प्रकारका है । ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणत होकर आत्माके साथ सम्बन्धको प्राप्त हुए जो पुद्गलपरमाणु हैं उन्हें 'द्रव्यकर्ममल' कहते हैं । और द्रव्यकर्ममलके उदयका निमित्त पाकर जो राग-द्वेष-मोहादिरूप विकारभाव उत्पन्न होते तथा नवीन कर्मबन्धका कारण बनते हैं उन्हें 'भावकर्ममल' समझना चाहिए |
निश्चयसे आत्मा दर्शन ज्ञान चारित्ररूप
'यश्वरत्यात्मनात्मानमात्मा जानाति पश्यति । निश्चयेन स चारित्र' ज्ञानं दर्शनमुच्यते ||४३||
'जो आत्माको निश्चयसे- निश्चय नयको दृष्टिले -- देखता, जानता और आचरता (स्वरूपप्रवृत्त करता है वह आत्मा ही (स्वयं) दर्शनरूप (स्वयं) ज्ञानरूप और (स्वयं) चारित्ररूप कहा जाता है।'
व्याख्या - पिछले पद्य में मुक्तिमार्गको सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्ररूप त्रितयात्मक निर्दिष्ट किया है; इस पद्य में बतलाया है कि ये तीन रूप तीन भिन्न वस्तुओंका कोई समुदाय नहीं है, निश्चयनयकी ष्टिसे ये दर्शन-ज्ञान और चारित्र तीनों एक ही आत्माके रूप हैं; क्योंकि निश्चय नय अभिन्न-कर्तृ कर्मादि विषयक होता है - जो आत्मा जिसको देखता, जानता अथवा जिस रूप आचरण करता है वह निश्चय नयकी अपेक्षा स्वसे भिन्न कोई दूसरी वस्तु नहीं होती ।
१. निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिरेभिर्य: समाहितो भिक्षुः । नैवादत्ते किंचिन्न मुञ्चति मोक्षहेतुरसी ॥ - तत्त्वानु० ३१ ॥ सम्मदंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाण । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ॥ - द्रव्यसं० ३९ । २. जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणणमयं । सो चारितं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ॥ १६२॥ - पञ्चास्ति० 1 ३. अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नयः । व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः । - तत्त्वानु० २९ ।
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