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________________ पद्य ३५-३७ ] जीवाधिकार अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन चार नोकषायका अन्तर्भाव है। जो राग मिथ्यादर्शनसे युक्त होता है उसे 'मोह' कहते हैं ।' ज्ञानके कषायवश होनेपर अहिंसादि कोई व्रत नहीं ठहरता अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्म सङ्गविवर्जनम् । कषाय-विकले ज्ञाने समस्तं नैव तिष्ठति ॥ ३६ ॥ 'ज्ञानके कषायसे विकल - विह्वल अथवा स्वभावच्युत- होनेपर अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह यह सब ( व्रत - समूह ) स्थिर नहीं रहता- इसमें से कोई भी व्रत नहीं बनता ।' व्याख्या - इस पद्य में चारित्रके प्रसिद्ध अंगभूत अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( अचौर्य ), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - रूपसे जिन पाँच महाव्रतों का उल्लेख है उनके विषयमें एक बड़ी ही महत्त्वकी बात सुझायी है और वह यह कि ज्ञानके कषायसे--राग-द्वेषसे व्याकुल एवं दूषित होने की अवस्थामें एक भी महात्रत स्थिर रहने नहीं पाता --- सब आत्मासे कूँच कर जाते हैं । अतः जो महाव्रती हैं- जिन्होंने मुनिदीक्षा धारण करते समय पंच महाव्रतोंके पालनकी प्रतिज्ञा ली है तथा जो उनका पालन कर रहे हैं-- उन्हें समझना चाहिए कि जिस किसी समय भी हम अपने ज्ञानक्ने कषायसे आकुलित होने देंगे उसी समय हमारे पाँचों महाव्रत भंग हो जायेंगे और उस वक्त तक भंग रहेंगे जबतक ज्ञानमें कषायकी वह उद्विग्नता अथवा राग-द्वेषकी वह परिणति स्थिर रहेगी । और इसलिए व्रतभंगसे भयभीत मुनियों तथा योगीजनोंको बहुत ही सावधानीसे वर्तना चाहिए - यों ही अपनेको हर समय महाव्रती न समझ लेना चाहिए । जो ज्ञानी जिस समय भी कषायके वश होता है वह उसी समय असंयत हो जाता है, जैसा कि रयणसार और परमात्मप्रकाशके निम्न वाक्योंसे प्रकट है : ाणी कसायवसगो असंजदो होदि सो ताव ॥ ७१ ॥ - रयणसार जावइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ । : होइ कसायहं वसि गयउ जीउ असंजदु सोइ ॥ - परमात्मप्रकाश २-४१ Jain Education International २५ ज्ञानके आत्मरूप रत होनेपर हिंसादिक पापका पलायन ४ हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रहः । आत्मरूपगते ज्ञाने निःशेषं प्रपलायते ||३७| 'ज्ञानके आत्मरूप में परिणत होनेपर हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह (यह ) सब (पाप समूह ) भाग जाता है- इनमें से कोई भी पाप नहीं बनता ।' व्याख्या - इस पद्य में भी पूर्वपद्य जैसी ही महत्त्वकी बात सुझायी है । इसमें हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह नामके पाँचों पापोंका उल्लेख करके लिखा है कि 'जब ज्ञान आत्मरूप में रत हुआ उसका चिन्तन करता है तब ये पाँचों पाप स्वतः भाग जाते हैं— कोई भी पाप पास फटकने नहीं पाता। इससे आत्माकी शुद्धि स्वतः बनी रहती है - उसको शुद्ध १. रागः प्रेम रतिर्माया लोभं हास्यं च पञ्चघा । मिथ्यात्वभेदयुक् सोऽपि मोहो द्वेषः क्रुधादिषट् ॥ --अध्यात्मरहस्य २७ । २. भा समस्ते नैव तिष्ठते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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