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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार १ इस गाथामें जिसे 'केवल शुद्ध' कहा गया है प्रवचनसारकी ३३वीं गाथामें उसे ही 'ज्ञायकस्वभाव' रूप बतलाया है। २४ जिनेन्द्र भगवान के जिस श्रुतका - सूत्ररूप आगमका - यहाँ निर्देश किया है वह पौद्गलिक वचनों के द्वारा निर्दिष्ट होनेसे 'द्रव्य श्रुत' है - स्वतः ज्ञानरूप न होकर पुद्गलके रूपमें है, उसकी जो ज्ञप्ति - जानकारी वह 'भाव श्रुतज्ञान' कहलाती है । भाव श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में कारण पड़ने से उस द्रव्य श्रुतको भी उपचारसे - व्यवहार नयसे- श्रुतज्ञान कहा जाता है। सूत्र तो उपाधिरूपमें होनेसे छूट जाता है, ज्ञप्ति ही अवशिष्ट रह जाती है । वह ज्ञप्ति केवलज्ञानीकी और श्रुतकेवलीकी आत्माके सम्यक् अनुभवनमें समान ही होती है, वस्तुतः ज्ञानका श्रुतोपाधिरूप भेद नहीं है । ऐसा श्री अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी ३४वीं गाथाकी टीका व्यक्त किया है "अथ सूत्रमुपाधित्वान्नाद्रियते ज्ञप्तिरेवावशिष्यते । सा च केवलिनः श्रुतकेवलिनश्वात्मसंचेतने तुल्यैवेति नास्ति ज्ञानस्य श्रुतोपाधिभेदः । " स्वामी समन्तभद्रके शब्दों में स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनोंके सर्वतत्व - प्रकाशन में साक्षात् असाक्षात्का -- प्रत्यक्ष - परोक्षका-भेद है- जीवाजीवादि तत्वोंके यथार्थ रूपसे जानने में कोई अन्तर नहीं है; जैसा कि देवागमकी निम्न कारिकासे प्रकट है स्याद्वाद - केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५॥ आत्माके सम्यक्चारित्र कब होता है। पराधीनं यदा ज्ञानं प्रवर्तते । तदाभ्यधायि चारित्रमात्मनो मलसूदनम् ||३५|| 'जब ज्ञान राग-द्वेषकी पराधीनतासे रहित हुआ प्रवर्तता है तब आत्माके वह चारित्र होता है जो कि मलका -- कर्म- कालिमाका - नाशक है ।' व्याख्या -- जिस समय ज्ञान राग-द्वेपके अधीन नहीं प्रवर्तता - जिस ज्ञयको जानता है उसमें राग-द्वेष रूप से वृत्त न होकर मध्यस्थभाव बनाये रखता है- - उस समय सम्यक् चारित्रकी प्रादुर्भूति आत्मामें स्वतः हो जाती है, उसके लिए किसी प्रयत्न - विशेषकी जरूरत नहीं रहती । और यह सच्चरित्र ही आत्मामें लगे कर्ममलको धो डालनेमें समर्थ होता हैकर्ममल इस चारित्र के प्रभाव से स्वतः धुल जाता है, उसको आत्मासे पृथक होना ही पड़ता है । इससे सार यह निकला कि यदि अपने आत्माको निर्मल करना अथवा रखना है तो अपने ज्ञानको राग-द्वेपरूप कपायके अधीन नहीं होने देना चाहिए । मोह - जनित राग-द्वेष में सभी कपायों का समावेश है । रागमें माया, लोभ इन दो कपायों और हास्य, रति तथा काम ( वेद ) इन तीन नोकपायोंका समावेश है और द्वेपमें क्रोध, मान इन दो कपायोंका तथा Jain Education International १. जो हि सुद्रेण विजाणदि अप्पप्पाणं जाणगं सहावेण । तं सुयकेवलिमिसिणो भणति लोयप्पदीवयरा ||३३|| – प्रवचनसार । २. सुत्तं जिणोवदिट्टं पोग्गलदन्वप्पगेहिं वयणे हि । तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ||३४|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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