________________
योगसार-प्राभूत
[ अधिकार १ फरने तथा शुद्ध रखनेका दूसरा कोई खास प्रयत्न करनेकी जरूरत नहीं रहती। यह सब मात्मध्यानकी महिमा है।
आत्माके निर्मल ज्ञानादिरूप-ध्यानसे कर्मच्युति चारित्र दर्शनं ज्ञानमात्मरूपं निरञ्जनम् ।
कर्मभिर्मुच्यते योगी ध्यायमानो न संशयः ॥३८॥ 'निर्मल दर्शन-ज्ञान-चारित्र ( यह ) आत्माका स्व-रूप है। इस आत्मरूपको ध्याता हुआ योगी कर्मोसे छूट जाता है, इसमें सन्देहकी कोई बात नहीं है।'
व्याख्या-जिस आत्मरूपकी पिछले पद्य में सूचना की गयी है उसे इस पद्यमें निर्मल दर्शन, ज्ञान तथा चारित्ररूप निर्दिष्ट किया है। साथ ही यह बतलाया है कि इस ( रत्नत्रय ) रूपका ध्यान करता हुआ योगी कर्मोंसे अवश्य ही छुटकारा पाता है-ध्यानमें जितनी-जितनी एकाग्रता होती है उतने-उतने ही कर्मों के बन्धन टूटते जाते हैं। अतः इससे कर्मबन्धनोंसे छुटकारा पाना अपने अधीन है-पराधीन कुछ भी नहीं। अपने आत्मध्यानकी शक्तिको बढ़ाना चाहिए।
पर-द्रव्य-रत-योगीको स्थिति यः करोति पर-द्रव्ये रागमात्म-पराङ्मुखः।
रत्नत्रय-मयो नासौ न चारित्र-चरो यतिः ॥३६॥ 'जो योगी आत्मासे पराङ्मुख हुआ पर-द्रव्यमें राग करता है वह योगी न तो रत्नत्रयमय है और न (शुद्ध) चारित्रपर चलनेवाला है।' । ___व्याख्या-पिछले पद्यमें यह बतलाया है कि आत्मस्वरूपका ध्यान करता हुआ योगी कर्मबन्धनसे छूटता है। इस पद्यमें उस योगीका उल्लेख है जो आत्मध्यानसे मुख मोड़े हुए परद्रव्यमें राग रखता है । उसके विषयमें लिखा है कि वह न तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयका धारक है और न (शुद्ध) चारित्रपर ही चलनेवाला है । वस्तुतः परद्रव्यमें आसक्त वही होता है जो आत्मस्वरूपसे विमुख होता है और जो आत्मस्वरूपसे विमुख है उसके रत्नत्रयकी बात तो दूर, शुद्धचारित्रका आचरण भी नहीं बनता ।
निश्चय-चारित्रका स्वरूप अभिन्नमात्मनः शुद्ध ज्ञानदृष्टिमयं स्फुटम् ।
चारित्र चर्यते शश्वच्चारु-चारित्रवेदिभिः ॥४०॥ 'जो सम्यक् चारित्रके अनुभवी हैं वे आत्मासे अभिन्न स्पष्ट शुद्ध दर्शन-ज्ञान-मय चारित्रका सदा आचरण करते हैं।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस चारित्रका उल्लेख है उसके दो भेद हैं : एक निश्चय और दूसरा व्यवहार । इस पद्यमें निश्चय चारित्रके स्वरूपका उल्लेख है और उसे आत्मासे अभिन्न शुद्ध स्पष्ट ज्ञानदर्शनमय बतलाया है-अर्थात् अपने आत्माके शुद्ध-स्पष्ट ज्ञान-दर्शनको लिये हुए जो आत्मचर्या है-आत्मामें रमण है-उसे निश्चयचारित्र निर्दिष्ट किया है। और साथ ही यह सूचित किया है कि जो सम्यक् चारित्रके मर्मज्ञ हैं वे सदा इस निश्चयचारित्रपर चलते हैं-अपनी परिणतिको सदा शुद्ध ज्ञान-दर्शन-रूप बनाये रखते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org