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________________ पद्य २८-३१] जीवाधिकार __व्याख्या-पिछले पद्योंमें त्रिलोक-स्थित त्रिकालगत सर्व पदार्थोंको युगपत् जाननेकी बात कही गयी है । इन पद्योंमें यह बतलाया गया है कि यदि केवलज्ञान उन सब पदार्थोंको युगपत् नहीं जानता है तो यह कहना होगा कि वह एक पदार्थको भी पूरा नहीं जानता है; क्योंकि एक पदार्थमें भी अनन्त पर्यायें होती हैं, क्रमशः उन्हें जानते हुए कब उन सब पर्यायोंको जान पायेगा ? कभी भी नहीं। जब इस तरह एक द्रव्यकी अनन्त पर्यायें कभी भी पूरी जाननेमें नहीं आ सकेंगी तब एक द्रव्यका पूरा जानना कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। और यह एक बड़ा दोष उपस्थित होगा। यदि एक द्रव्यकी पर्यायोंको क्रमशः जानते हुए उनके जाननेका अन्त माना जायेगा तो तदनन्तर द्रव्यको पर्यायशून्य मानना होगा और पर्यायशून्य माननेका अर्थ होगा द्रव्यका अभाव; क्योंकि 'गुण पर्ययक्द्रव्यम्' इस सूत्र वाक्यके अनुसार गुण-पर्यायवानको 'द्रव्य' कहते हैं, गुण और पर्याय दोनोंमें से कोई नहीं तो द्रव्य नहीं। और द्रव्य चूंकि सत् लक्षण होता है अतः उसका कभी अभाव नहीं हो सकता-भले ही पर्यायें जल-कल्लोलोंकी तरह समय-समयपर पलटतीबदलती रहें। ऐसी स्थितिमें केवलज्ञानका युगपत् सब पदार्थोंको जानना ही ठीक बैठता है-क्रमशः जानना नहीं। समस्त बाधक कारणोंका अभाव हो जानेसे केवलज्ञान जाननेकी अनन्तानन्त-शक्तिसे सम्पन्न है, उसमें सब द्रव्य अपनी-अपनी अनन्त पर्यायोंके साथ ऐसे झलकते हैं जैसे दर्पणमें पदार्थ समूह झलका करते हैं। जो ज्ञान पदार्थोंको क्रमसे जानता है वह न तो नित्य होता है, न क्षायिक और न सर्वगत; जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसारकी निम्न गाथामें व्यक्त किया है उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अढे पडुच्च जाणिस्स । तं णे व हवदि णिच्चं ण खाइगं व सव्वगदं ॥५०॥ वह क्रमवर्ती ज्ञान नित्य इसलिए नहीं कि एक पदार्थका अवलम्बन लेकर उत्पन्न होता है दूसरे पदार्थके ग्रहणपर नष्ट हो जाता है; क्षायिक इसलिए नहीं कि वह ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमाधीन प्रवर्तता है और सर्वगत इसलिए नहीं कि वह अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको युगपत् जानने में असमर्थ है। अतः ऐसे क्रमवर्ती पराधीन ज्ञानका धनी आत्मा सर्वज्ञ नहीं हो सकता। आत्माके घातिकर्मक्षयोत्पन्न परम रूपकी श्रद्धाका पात्र 'घातिकर्मक्षयोत्पन्न यद्पं परमात्मनः । श्रद्धत्ते भक्तितो भव्यो नाभव्यो भववर्धकः ॥३१॥ 'घातिया कर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुआ आत्माका जो परम रूप है उसको भव्यात्मा भक्तिसे श्रद्धान करता है, अभव्य जीव नहीं; क्योंकि वह भववर्धक होता है-स्वभावसे संसारपर्यायोंको बढ़ाता रहता है और इसलिए आत्माके उस परम रूपकी श्रद्धासे सदा विमुख रहता है। १. सद्व्य लक्षणम् । -त० सूत्र ५--२९ । २. नैवासतो जन्म सतो न नाशो।-( समन्तभद्र ) ३. तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥१॥ -अमृतचन्द्र (पुरु० सि०) ४. जो ण विजाणदि सव्वं पेच्छदि सो तेण सोक्खमणुहवदि । इदि तं जाणदि भविओ अभव्वसत्तो ण सद्दहदि ॥१६३॥-पञ्चास्तिकाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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