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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार १ त्रिलोकके मध्यवर्ती जो पदार्थ अतीत हैं-भूतकालमें तत्कालीन पर्याय-दृप्रिसे जिनका अस्तित्व था-और जो भावी हैं-भविष्यकालमें तत्कालीन पर्याय-दृष्टिसे जिनका अस्तित्व होगा-वे दक्षों-विवेक-निपुणोंके द्वारा असद-अविद्यमान-माने गये हैं और जो वर्तमान हैं-अपनी वर्तमान समय-सम्बन्धी पर्यायमें स्थित हैं-उन्हें सत्-विद्यमान-माना गया है।' व्याख्या-पिछले पद्यमें जिन सत् (विद्यमान ) तथा असत् पदार्थोंको युगपत् जाननेकी बात कही गयी है उन्हें इस पद्य में स्पष्ट किया गया है : असत् उन्हें बतलाया गया है जो अतीत (भूत) तथा अनागत (भविष्य) कालके विषय हैं और सत् वे हैं जो वर्तमान कालके विषय हैं। तीनों ही कालोंके ये विषय तीनों लोकोंके उदर में रहनेवाले हैं-कोई भी लोक ऐसा नहीं जहाँ भूत-भविष्यत्-वर्तमानरूपसे पदार्थों का अस्तित्व न हो। भूत-भावी पदार्थों को जाननेका रूप अतीता भाविनश्चार्थाः स्वे स्वे काले यथाखिलाः। वर्तमानास्ततस्तद्वद्वेत्ति तानपि केवलम् ॥२८॥ अतः-सत्-असत्की उक्त लक्षण दृष्टिसे-सम्पूर्ण अतीत और अनागत पदार्थ अपनेअपने कालमें जिस रूपमें वर्तते हैं उनको भी केवलज्ञान उसी रूपमें जानता है।' व्याख्या-पिछले पद्यमें जिन अतीत-अनागत पदार्थोंको युगपत् जाननेकी बात कही गयी है उन्हें केवलज्ञान किस रूपसे जानता है उसे इस पद्यमें स्पष्ट किया गया है-लिखा है कि अतीत-अनागत पदार्थ अपने-अपने कालमें जिस प्रकारसे वर्तमान होते हैं उन्हें भी केवलज्ञान उनके तत्कालीन वर्तमानरूपकी तरह जानता है, न कि केवल वर्तमान कालके पदार्थों को वर्तमानकी तरह । जो आज भूत है वह कल वर्तमान था और जो आज वर्तमान है वह कलको भूत हो जायेगा। भूतको स्मृतिके द्वारा और भविष्यको किसी निमित्तकी तासे केवलज्ञान नहीं जानता, उसके सामने द्रव्योंकी सब पर्यायें वर्तमानकी तरह स्पष्ट खुली हुई होती हैं, तभी वह उनका युगपत् जाननेवाला हो सकता है । ज्ञानके सब पदार्थोंमें युगपत् प्रवृत्त न होनेसे दोषापत्ति सर्वेषु यदि न ज्ञानं योगपद्येन वर्तते ।। तदैकमपि जानाति पदार्थ न कदाचन ॥२६॥ एकत्रापि यतोऽनन्ताः पर्यायाः सन्ति वस्तुनि । क्रमेण जानता सर्वे ज्ञायन्ते कथ्यतां कदा ॥३०॥ 'यदि (केवल) ज्ञान सब पदार्थोंमें युगपत्-रूपसे नहीं वर्तता है-सबको एक साथ नहीं जानता है तो वह एक भी वस्तुको कभी नहीं जानता; क्योंकि एक वस्तुमें भी अनन्त पर्याय होती हैं, क्रमसे जानते हुए वे सब पर्यायें कब जानी जाती हैं सो बतलाओ ? पर्यायोंके ज्ञानका अन्त न आनेसे कभी भी एक वस्तुका पूरा जानना नहीं बन सकता।' १. जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स । ण हवदि वा तं गाणं दिव्वं ति हि के पति ॥३९।। -प्रवचनसार २. जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । णादं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दवमेगं वा ॥४८।। दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सब्वाणि जाणादि ॥४९॥-प्रवचनसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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