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________________ योगसार प्राभृत [ अधिकार १ व्याख्या - ग्रन्थके १० वें पद्यमें यह बतलाया था कि केवलज्ञान तथा केवलदर्शन कर्म के क्षयसे उदयको प्राप्त होते हैं। वे कर्म कौन-से हैं ? यहाँ उनको 'घाति' विशेषणके द्वारा स्पष्ट किया गया है । घातिया कर्म चार हैं- १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय, और ४ अन्तराय । अतः केवलज्ञान और केवलदर्शन, केवलज्ञानावरण और दशनावरण कर्मोंके क्षयसे ही उत्पन्न नहीं होते किन्तु मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके क्षयकी भी साथमें अपेक्षा रखते हैं । इन चारों कर्मोंके मूलतः विनष्ट होनेपर ही आत्माका वह परम रूप विकासको प्राप्त होता है जो अनन्त - दर्शन - ज्ञान- सुख - वीर्य चतुष्ट्यात्मक सर्वज्ञका रूप है । इस रूपके प्रति भव्यजीवकी बड़े भक्ति-भावसे श्रद्धा होती है; क्योंकि वह अपना भी यह रूप समझता है और जब भी अवसर मिलता है उसके विकासका यत्न करता है । परन्तु अभव्य जीव उसकी श्रद्धा नहीं करता; क्योंकि स्वभावसे ही भववर्द्धक -संसार चक्रको बढ़ानेवाला भवाऽभिनन्दी - होता है । २२ आत्माके परम रूप श्रद्धानीको अव्यय पदकी प्राप्ति यत्सर्वार्थवरिष्ठं यत्क्रमातीतमतीन्द्रियम् । श्रदधात्यात्मनो रूपं स याति पदमव्ययम् ||३२| 'जो सर्व पदार्थोंमें श्रेष्ठ है, जो क्रमातीत है-क्रमवर्ती नहीं अथवा आदि मध्य अन्तसे रहित है- --तथा अतीन्द्रिय है- इन्द्रियज्ञानगोचर नहीं - उस आत्माके ( परम ) रूपको जो श्रद्धा करता है वह अविनाशी पद - मोक्षको प्राप्त होता है ।' व्याख्या - पिछले पद्य में आत्मा के घातिकर्म अयोत्पन्न जिस परम रूपका श्रद्धान करनेवाले भव्यजीवका उल्लेख है उसके विषयमें यहाँ इतना और स्पष्ट किया गया है कि वह आत्मा के रूपको सर्व पदार्थों में श्रेष्ठतम, क्रम रहित और अतीन्द्रिय श्रद्धान करता है और ऐसा श्रद्धान करनेवाला अव्ययपद जो मोक्षपद है उसको प्राप्त होता है । आत्मा परम रूपकी अनुभूतिका मार्ग निर्व्यापारीकृताक्षस्य यत्क्षणं भाति पश्यतः । तद्रूपमात्मनोज्ञेयं शुद्धं संवेदनात्मकम् ||३३|| 'इन्द्रियोंके व्यापारको रोककर क्षण-भर अन्तर्मुख होकर देखनेवाले योगीको जो रूप दिखलाई पड़ता है उसे आत्माका शुद्ध संवेदनात्मक ( ज्ञानात्मक ) रूप जानना चाहिए ।' व्याख्या - इस पद्यमें आत्माको साक्षात् रूपसे अनुभव करनेकी प्रक्रियाका उल्लेख है. और वह यह कि सब इन्द्रियोंको व्यापार रहित करके - इन्द्रियोंकी अपने विषयों में प्रवृत्तिको रोककर - साथ ही मनको भी निर्विकल्प करके — जो कुछ क्षणमात्र के लिए अन्तरंग में दिखलाई पड़ता है वह आत्माका रूप है, जो कि शुद्ध ज्ञायक स्वरूप है । यहाँ मनको निर्विकल्प करने की बात यद्यपि मूलमें नहीं है परन्तु उपलक्षणसे फलित होती है; क्योंकि मन इन्द्रियों की १. अस्ति वास्तव सर्वज्ञः सर्वगीर्वाणवन्दितः । घातिकर्मक्षयोत्पन्नं स्पष्टानन्तचतुष्टयः ॥ रामसेन, तत्त्वानुशासन । २. म श्रद्दधत्यात्मनो । ३. सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना । यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मनः ॥३०॥ समाधितन्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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