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________________ पद्य २१-२२] जीवाधिकार १७ दूधसे भरे जिस बड़े पात्र में इन्द्रनील रत्न पड़ा होता है उसके थोड़े-से ही देश में यद्यपि वह स्थित होता है और उसका कोई भी परमाणु उससे निकलकर अन्यत्र नहीं जाता; फिर भी उसकी प्रभामें ऐसा वैचित्र्य है कि वह सारे दूधको अपने रंग में रंग लेता है और दूधका कोई भी परमाणु वस्तुतः नीला नहीं हो पाता - - नीलमणिको यदि दूधसे निकाल लिया जाये तो दूध ज्योंका त्यों अपने स्वाभाविक रंगमें स्थित नज़र आता है, नीलरत्नकी प्रभाके संसर्गसे कहीं भी उसमें कोई विकार लक्षित नहीं होता। ऐसी ही अवस्था ज्ञान तथा ज्ञेयोंकी है, ज्ञेयोंके मध्य में स्थित हुआ केवलज्ञान यद्यपि वस्तुतः अपने आत्मप्रदेशों में ही स्थित होता है और आत्माका कोई भी प्रदेश आत्मासे अलग होकर बाह्य पदार्थोंमें नहीं जाता; फिर भी उसके केवलज्ञानमें तेजका ऐसा माहात्म्य है कि वह सारे पदार्थोंको अपनी प्रभासे ज्ञेयाकार रूपमें व्याप्त कर उन पदार्थों में अपने प्रदेशोंके साथ तादात्म्यको प्राप्त - जैसा प्रतिभासित होता है; जब कि दर्पणमें उसकी स्वच्छताके वशं प्रतिबिम्बित पदार्थोंकी तरह वैसा कुछ भी नहीं है । अतः व्यवहारनयकी दृष्टिसे ज्ञानका ज्ञेयोंमें और ज्ञेयों ( पदार्थों ) का ज्ञानमें अस्तित्व कहा जाता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने इस बातको और स्पष्ट करते हुए प्रवचनसारमें लिखा है जदि ते ण संति अट्ठा गाणे गाणं ण होदि सव्वगयं । सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्टिया अट्ठा ॥ ३१ ॥ 'यदि वे पदार्थ केवलज्ञानमें अस्तित्व न रखते हों--न झलकते हों तो केवलज्ञानको सर्वगत नहीं कहा जा सकता, और ज्ञान यदि सर्वगत है तो पदार्थोंको ज्ञानमें स्थित कैसे नहीं कहा जायेगा ? -- कहना ही होगा । इस प्रकार यह ज्ञान में ज्ञयोंकी और ज्ञयोंमें ज्ञानकी स्थिति व्यवहारनयकी दृष्टि से है । निश्चयनयकी दृष्टिसे ज्ञान अपनेमें और ज्ञये अपनेमें स्थित हैं । दर्पण में प्रतिबिम्ब और प्रतिबिम्बमें दर्पणकी तरह एकके अस्तित्वका दूसरे में व्यवहार किया जाता है। ज्ञेयको जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता चतुर्गृहद्यथारूपं रूपरूपं न जायते । ज्ञानं जानन्तथा ज्ञेयं ज्ञेयरूपं न जायते ||२२|| 'जिस प्रकार आँख रूपको ग्रहण करती हुई रूपमय नहीं हो जाती उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयको जानता हुआ ज्ञेयरूप नहीं हो जाता ।' व्याख्या - यहाँ आँखके उदाहरण द्वारा इस बातको स्पष्ट किया गया है कि जिस पदार्थको ज्ञान जानता है उस पदार्थके रूप नहीं हो जाता; जैसे कि आँख जिस रंग-रूपको देखती है उस रूप स्वयं नहीं हो जाती । सारांश यह कि देखने और जाननेका काम तद्रपपरिणमनका नहीं है । ३ Jain Education International १. णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पा हि णाणिस्स । रुवाणि व चक्खणं णेवाण्णोष्णेसु वट्टंति ॥ २८ ॥ प्रवचनसार ت For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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