________________
'१६
योगसार-प्राभूत
[ अधिकार १. आत्मासे ज्ञान-ज्ञेयको अधिक माननेपर दोषापत्ति यद्यात्मनोऽधिकं ज्ञानं ज्ञेयं वापि प्रजायते ।
लक्ष्य-लक्षणभावोऽस्ति तदानीं कथमेतयोः ॥२०॥ यदि आत्मासे ज्ञान अथवा ज्ञेय भी अधिक होता है ( ऐसा माना जाये ) तो इन दोनोंमेंआत्मा और ज्ञानमें लक्ष्य-लक्षण-भाव कैसे बन सकता है ?-नहीं बन सकता ।
व्याख्या-यहाँ आत्मासे ज्ञानके तथा ज्ञेयके भी अधिक होनेपर दोनों में लक्ष्य-लक्षणभावके घटित न होनेकी बात कही गयी है। जिसे लक्षित किया जाये-अनेक मिले-जुले पदार्थोमें-से पृथक् बोधका विषय बनाया जाये-उसे 'लक्ष्य' कहते है और जिसके द्वारा लक्षित किया जाये उस व्यावर्तक ( भिन्नता-बोधक ) हेतुको 'लक्षण' कहते हैं। लक्षणको अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीन दोषोंसे रहित होना चाहिए; तभी वह लक्ष्यका ठीक तौरसे बोध करा सकेगा, अन्यथा नहीं । लक्ष्यके एक देशमें रहनेवाला लक्षण अव्याप्ति दोपसे, लक्ष्यसे बाहर अलक्ष्यमें भी पाया जानेवाला लक्षण अतिव्याप्ति दोषसे और लक्ष्यमें जिसका रहना बाधित है वह असंभव दोषसे दूषित कहलाता है। यहाँ ज्ञान आत्माका लक्षण है जो सामान्य-वेदन तथा विशेष-वेदनके रूपमें दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगके नामसे इसी अधिकारके वें-८वें पद्योंमें निर्दिष्ट हुआ है । आत्मा ( लक्ष्य )से ज्ञान ( लक्षण ) अधिक होनेपर ज्ञान-लक्षण 'अतिव्याप्ति' दोषसे दूषित होता है और इसलिए उसमें लक्षण-भाव घटित नहीं होता। ज्ञानस्वरूप आत्मासे ज्ञेयके अधिक होनेपर ज्ञान ज्ञेय प्रमाण न होकर ज्ञेयसे छोटा पड़ा और इसलिए 'अव्याप्ति' दोषसे दूषित रहा; क्योंकि आत्मा भी ज्ञेय है। इसके सिवाय ज्ञेय हो और ज्ञान न हो यह बात असंगत जान पड़ती है; क्योंकि जो ज्ञानका विषय हो उसीको 'ज्ञेय' कहते हैं। ज्ञानके बिना ज्ञेयका अस्तित्व नहीं बनता, वह बाधित ठहरता है।
ज्ञेय-क्षिप्त ज्ञानको व्यापकताका स्पष्टीकरण - क्षीरक्षिप्तं यथा क्षीरमिन्द्रनीलं स्वतेजसा ।
ज्ञेयक्षिप्त तथा ज्ञानं ज्ञेयं व्याप्नोति सर्वतः ॥२१॥ 'जैसे दूधमें पड़ा हुआ इन्द्रनीलमणि अपने तेजसे-अपनी प्रभासे–दूधको सब ओरसे व्याप्त कर लेता है-अपनी प्रभा जैसा नीला बना लेता है-उसी प्रकार ज्ञेयके मध्यस्थित ज्ञान अपने प्रकाशसे ज्ञेय समूहको पूर्णतः व्याप्त कर उसे प्रकाशित करता है-अपना विषय बना लेता है।'
___व्याख्या-यहाँ 'इन्द्रनीलं' पद उस सातिशय महानील रत्नका वाचक है जो बड़ा तेजवान होता है। उसे जब किसी दूधसे भरे बड़े कड़ाहे या देश जैसे बर्तनमें डाला जाता है तो वह दुग्धके वर्तमान रूपका तिरस्कार कर उसे सब ओरसे अपनी प्रभा-द्वारा नीला बना लेता है। उसी प्रकार ज्ञेयोंके मध्यके स्थित हुआ केवलज्ञान भी अपने तेजसे अज्ञान अन्धकारको दूर कर समस्त जेयोंमें ज्ञेयाकार रूपसे व्याप्त हुआ उन्हें प्रकाशित करता है।
१. रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसितं जहा सभासाए । अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमत्थेसु ॥३०॥ (-प्रवचनसार )जह पउमरायरयणं खित्तं खीरे पभासयदि खीरं । तहदेही देहत्थो प्रदेश पभासयदि । -पञ्चास्ति०३३ २. मु ज्ञेयं ज्ञानं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.