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________________ १८ योगसार- प्राभृत ज्ञान स्वभावसे दूरवर्ती पदार्थोंको भी जानता है दवीयांसमपि ज्ञानमर्थं वेत्ति निसर्गतः । अयस्कान्तः स्थितं दूरे नाकर्षति किमायसम् ॥ २३ ॥ 'ज्ञान दूरवर्ती पदार्थको — क्षेत्र - कालादिकी दृष्टिसे दूरस्थित पदार्थ समूहको - भी स्वभावसे जानता है । क्या कान्तलोह - चुम्बकपाषाण -- दूरीपर स्थित लोहेको अपनी ओर नहीं खींचता ? - खींचता ही है ।' व्याख्या - यहाँ चुम्बक लोह पाषाणके उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार चुम्बक - पाषाण दूरस्थित दूसरे लोहेको स्वभावसे अपनी ओर खींच लेता है. उसी प्रकार केवलज्ञान भी क्षेत्रकी अपेक्षा तथा कालकी अपेक्षा दूरवर्ती पदार्थोंको अपनी ओर आकर्षित कर उन्हें निकट स्थित वर्तमानकी तरह जानता है, यह उसका स्वभाव है । इसपर कोई यह शंका कर सकता है कि चुम्बककी शक्ति तो सीमित है, उसकी शक्ति-सीमाके भीतर जब लोहा स्थित होता है तभी वह उसको खींचकर अपनेसे चिपटा लेता है, जब लोहा सीमाके बाहर होता है तब उसे नहीं खींच पाता; तब क्या केवलज्ञान भी सीमित क्षेत्रकालके पदार्थों को ही अपना विषय बनाता है ? इसका समाधान इतना ही है कि दृष्टान्त केवल समझने के लिए एकदेशी होता है, सर्वदेशी नहीं अतः चुम्बककी तरह ज्ञानकी सीमित शक्ति न समझ लेना चाहिए उसमें प्रतिबन्धकका अभाव हो जानेसे दूरवर्ती तथा अन्तरित हो नहीं किन्तु सूक्ष्म पदार्थोंको अपनी ओर आकर्षित करनेकी - अपना विषय बनानेकीअनन्तानन्तशक्ति है— उसके बाहर कोई भी पदार्थ बिना जाने अज्ञेयरूपमें नहीं रहता । इससे ज्ञानको 'सर्वगत' कहा है । वह अपने आत्म-प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं किन्तु प्रकाशकी अपेक्षा सर्वगत है । [ अधिकार १ ज्ञान स्वभावसे स्व-परको जानता है ज्ञानमात्मानमर्थं च परिच्छित्ते स्वभावतः । दीप उद्योतयत्यर्थं स्वस्मिन्नान्यमपेक्षते ||२४|| Jain Education International 'ज्ञान आत्माको और पदार्थ समूहको स्वभावसे ही जानता है। जैसे दीपक स्वभावसे अन्य पदार्थ समूहको प्रकाशित करता है वैसे अपने प्रकाशनमें अन्य पदार्थकी अपेक्षा नहीं रखताअपने को भी प्रकाशित करता है ।' व्याख्या - पिछले पद्य में यह बतलाया गया है कि केवलज्ञान दूरवर्ती पदार्थको भी जानता है, चाहे वह दूरी क्षेत्र सम्बन्धी हो या काल-सम्बन्धी, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि ज्ञान पर को ही स्वभावसे जानता है या अपने को भी जानता है ? इस पद्यमें दीपक के उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जिस प्रकार दीपक पर पदार्थोंका उत्द्योतन करता है उसी प्रकार अपना भी उद्योतन करता है-अपने उद्योतनमें किसी प्रकार परकी अपेक्षा नहीं रखता - उसी प्रकार ज्ञान भी अपनेको तथा पर पदार्थ समूहको स्वभावसे ही जानता है- अपनेको अथवा आत्माको जाननेमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखता । १. आ अय: स्कांत: । २. ब्या किमायसां । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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