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________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार १ पदार्थ के सहयोगसे होनेवाले मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वके सम्बन्धको न समझ ले, इसीसे 'जैनः मतं'-जैनियोंके द्वारा माना गया है-इस स्पष्ट करणात्मक वाक्यका प्रयोग किया गया है। मिथ्यात्वके सम्बन्धको प्राप्त होनेवाले ज्ञान तीन हैं-मति, श्रुत और अवधि; जो प्रमाण नहीं होते। मिथ्यात्वका स्वरूप और उसकी लीलाका निर्देश वस्त्वन्यथा परिच्छेदो ज्ञाने संपद्यते यतः । तन्मिथ्यात्वं मतं सद्भिः कर्मारामोदयोदकम् ॥१३॥ 'जिसके कारण ज्ञानमें वस्तुका अन्यथा परिच्छेद-विपरीतादिरूपसे जानना-बनता है उसको सत्पुरुषोंने मिथ्वात्व माना है, जो कि कर्मरूपी बगीचेको उगाने-बढ़ानेके लिए जल-सिंचनके समान है।' व्याख्या-यहाँ पूर्व पद्यमें उल्लिखित उस मिथ्यात्वके स्वरूपका निर्देश किया गया है जिसके सम्बन्धसे ज्ञान मिथ्याज्ञान हो जाता है-जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है उसका उस रूपमें ज्ञान न होकर विपरीतादिके रूपमें ज्ञानका होना जिसके सम्बन्धसे होता हैउसे 'मिथ्यात्व' कहते हैं। यह मिथ्यात्व सारे कर्मरूप बगीचेको उगाने-बढ़ानेके लिए जलदानके समान है । मिथ्यात्वका यह विशेषण बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और उसकी सारी लीलाके संकेतको लिये हुए है। दर्शनमोहके उदयजन्य मिथ्यात्वके तीन भेद 'उदये दृष्टिमोहस्य गृहीतमगृहीतकम् । जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वं तत् त्रिधा विदुः ॥१४॥ 'दर्शनमोहनीय कर्मका उदय होनेपर उत्पन्न हुआ वह मिथ्यात्व गृहीत, अगृहीत और सांशयिक ऐसे तीन प्रकारका कहा गया है।' व्याख्या-जिस मिथ्यात्वका स्वरूप पिछले पद्यमें दिया है उसके सम्बन्धमें यहाँ बतलाया है कि वह दर्शनमोहनीयकर्म के उदयसे उत्पन्न होता है और इसलिए उसे दृष्टिविकारसे युक्त तत्त्वों तथा पदार्थों के अश्रद्धानरूप समझना चाहिए। वस्तुके यथार्थरूपमें अपनी इस अश्रद्धाके कारण ही ज्ञानको वह मिथ्याज्ञान बनाता है। उस मिथ्यात्वके गृहीत, अगृहीत और सांशयिक ( संशयरूप ) ऐसे तीन भेदोंका यहाँ उल्लेख किया गया हैअगृहीतको 'नैसर्गिक' और गृहीतको 'परोपदेशिक' भी कहते हैं। जो बिना परोपदेशके मिथ्यात्वकर्मके उदयवश तत्त्वोंके अश्रद्धानरूप होता है उसे 'नैसर्गिक' ( अगृहीत ) मिथ्यात्व कहते हैं और जो परोपदेशके निमित्तसे तत्त्वोंके अश्रद्धानरूप होता है उसे 'परोपदेशिक' अथवा गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। वस्तु-तत्त्वके यथार्थ श्रद्धानमें विरुद्ध अनेक कोटियोंको स्पर्श करनेवाले और किसीका भी निश्चय न करनेवाले श्रद्धानको 'संशय मिथ्यात्व' कहते हैं जैसे मोक्षमार्ग दर्शनज्ञानचारित्र-रूप है या कि नहीं, इस प्रकार किसी एक पक्षको स्वीकार न करनेका सन्देह बनाये रखना। १. तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । संसइयमभिगहियं अणभिगहियं च तं तिविहं ॥५८॥ -भगवती आराधना, अध्याय १ २. सर्वार्थसिद्धि अध्याय ८ सूत्र १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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