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________________ पद्य १०-१२ 1 जीवाधिकार श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण हैं । इस तरह 'कर्मणः' पद यहाँ उपयोगों के विपक्षीभूत बारह कर्मोंके अलग-अलग वाचक अनेक अर्थोंको निर्विरोध रूप से लिये हुए है । यह सब निर्माणकी खूबी (विशेष ) है जो एक ही पदमें इतने अर्थोंका संकलन एवं समावेश किया गया है । 'परं सर्व' पदों में भी दश उपयोगोंका समावेश किया गया है । जिस प्रकार केवलज्ञानावरणादिके क्षयके साथ मोह तथा अन्तराय कर्मका क्षय भी विवक्षित है उसी तरह चक्षु दर्शनादिके क्षयोपशमके साथ भी मोह तथा अन्तराय कर्मका क्षयोपशम विवक्षित है । कर्मोंके क्षयसे उदित होनेवाले ज्ञान-दर्शन ' क्षायिक ज्ञान-दर्शन' और कर्म क्षयोपशम से उदित होनेवाले ज्ञान-दर्शन ' क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन' कहे जाते हैं । केवलज्ञान दर्शनको युगपत् और शेषकी क्रमशः उत्पत्ति यौगपद्येन जायेते केवल - ज्ञान - दर्शने । क्रमेण दर्शनं ज्ञानं परं निःशेषमात्मनः ॥ ११ ॥ 'आत्माके केवलज्ञान और केवलदर्शन ( ये दो उपयोग ) युगपत् - एक साथ - उदित होते हैं। शेष सब दर्शन और ज्ञान - चक्षु अचक्षु अवधिरूप तीन दर्शन, मति श्रुत-अवधि-मनःपर्ययरूप चार सम्यक्ज्ञान और कुमति-कुश्रुति तथा कुअवधिरूप तीन मिथ्याज्ञान- क्रमसे उदयको प्राप्त होते हैं । इनमें से कोई भी दर्शन विवक्षित ज्ञानके साथ युगपत् प्रवृत्त नहीं होता, सदा दर्शनपूर्वक ज्ञान हुआ करता है ।' व्याख्या - पूर्व पद्य में विवक्षित कर्मोंके क्षय-क्षयोपशमसे जिन उपयोगोंके उदयकी बात कही गयी है उनके उदयकी कालक्रम व्यवस्थाको इस पद्य में दर्शाते हुए बतलाया है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग तो युगपत् - कालभेद रहित एक साथ - उदयको प्राप्त होते हैं, शेष सब ज्ञानोपयोगों तथा दर्शनोपयोगोंका उदय आत्मामें क्रमसे होता हैएक साथ नहीं बनता - ज्ञानके पहले दर्शन हुआ करता है। 'ज्ञानोपयोगमें, मिथ्याज्ञानको जैनोंके द्वारा मिथ्यात्वके समवायसे—सम्बन्धसे—और सम्यग्ज्ञानको सम्यक्त्वके समवायसे उदयको प्राप्त होना माना गया है । मिथ्याज्ञान- सम्यग्ज्ञानके कारणोंका निर्देश मिथ्याज्ञानं मतं तत्र मिथ्यात्वसमवायतः । सम्यग्ज्ञानं पुनर्जेंनैः सम्यक्त्वसमवायतः ||१२|| - पूर्व के दो पद्य सं०८,२ में ज्ञानोपयोगके आठ भेदोंमें पाँचको 'सम्यग्ज्ञान' और तीनको 'मिथ्याज्ञान' बतलाया गया है। इस पद्य में वैसा बतलाने के कारणों को सूचित करते हुए लिखा है कि 'मिथ्यात्व के समवायसे सम्बन्ध से - मिथ्याज्ञान और सम्यक्त्वके समवायसे सम्यग्ज्ञान होता है, ऐसी जैनियोंकी मान्यता है । जैनियोंकी मान्यताके अनुसार 'समवाय' शब्द सम्बन्धका वाचक है, वैशेषिकोंकी मान्यतानुसार उस पदार्थ - विशेषका वाचक नहीं जो एक है और सर्वथा भिन्न पदार्थोंका, स्वयं अलग-अलग रहकर, सम्बन्ध कराता है । 'समवाय' शब्द के प्रयोगसे यहाँ विवक्षित सम्बन्धको कोई वैशेषिक मतानुसार समवाय १. मतिः श्रुतावधी चैव मिथ्यात्व - समवायिनः । मिथ्याज्ञानानि कथ्यन्ते न तु तेषां प्रमाणता ॥ -तत्त्वार्थसार २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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