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________________ पद्य १३-१८ ] जोवाधिकार ११ सर्वार्थसिद्धि आदि दूसरे ग्रन्थोंमें मिथ्यात्वके पाँच भेदों का भी उल्लेख है जिनके नाम हैं— एकान्त-मिथ्यादर्शन, विपरीत - मिथ्यादर्शन, वैनयिक-मिथ्यादर्शन, आज्ञानिकमिथ्यादर्शन और संशय - मिथ्यादर्शन | जिनमें प्रथम चारको यहाँ गृहीत मिथ्यात्व के अन्तर्गत समझना चाहिए। इनके विस्तार पूर्वक स्वरूपको दूसरे ग्रन्थोंसे जानना चाहिए । मिथ्यात्व भावित जीवकी मान्यता अतत्त्वं मन्यते तत्त्वं जीवो मिथ्यात्वभावितः । अस्वर्णमीक्षते स्वर्ण न किं कनकमोहितः ॥ १५ ॥ 'मिथ्यात्वसे प्रभावित हुआ जीव अतत्त्वको तत्त्व मानता है । ( ठीक है ) धतूरेसे मोहित प्राणी क्या अस्वर्णको स्वर्णरूपमें नहीं देखता ? – देखता ही है । ' व्याख्या - मिथ्यात्व से संस्कारित अथवा मिध्यात्वकी भावनासे भावित जीव अतत्त्वको तत्त्वरूप उसी प्रकार मानता है जिस प्रकार कि धतूरा खाकर मोहित हुआ प्राणी उस सारे पदार्थ समूहको स्वर्ण रूपमें देखता है जो वस्तुतः स्वर्णरूप नहीं है । सम्यक्त्वका स्वरूप और उसकी क्षमता यथा वस्तु तथा ज्ञानं संभवत्यात्मनो यतः । जिनैरभाणि सम्यक्त्वं तत्क्षमं सिद्धिसाधने || १६ || 'जिसके कारण आत्माका ज्ञान जिस रूप वस्तु स्थित है उसी रूप भले प्रकार होता है उसे जिनेन्द्रदेवने 'सम्यक्त्व' कहा है जो सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धि के — साधनमें समर्थ है ।' व्याख्या - यहाँ १२वें पद्य में उल्लिखित उस सम्यक्त्वका लक्षण दिया गया है. जिसके सम्बन्धसे ज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप परिणत होता है । वह लक्षण यह है- 'जो वस्तु जिस रूपमें स्थित है उसका उसी रूपमें आत्माको ज्ञान जिसके कारण होता है उसको 'सम्यक्त्व' कहते हैं । यहाँ सम्यक्त्वको स्वात्मोपलब्धिके साधनमें समर्थ बतलाया है और इससे सम्यक्त्वका महत्त्व ख्यापित होता है, जो कि सारे आत्मविकासका मूल आधार है । Jain Education International सम्यक्त्वके क्षायिकादि भेद और उनमें साध्य-साधनता मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व-संयोजन-चतुष्टये | क्षयं शमं द्वयं प्राप्ते सप्तधा मोहकर्मणि ||१७|| क्षायिकं शामिक ज्ञेयं क्षायोपशमिकं त्रिधा । तत्रापि क्षायिकं साध्यं साधनं द्वितयं परम् ||१८|| ' ( वह सम्यक्त्व ) मिथ्यात्व सम्यगु मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व और संयोजन चतुष्टय — अनन्तानुबन्धी क्रोध - मान-माया लोभ - इन सात भेदरूप मोहकर्मके को प्राप्त १. ऐकान्तिकं सांशयिकं विपरीतं तथैव च । आज्ञानिकं च मिथ्यात्वं तथा वैनयिकं भवेत् ॥ २. व्या समं । ३. ब्या सामिकं । For Private & Personal Use Only — तत्त्वार्थसार www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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